SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निश्चय ही धैर्यवान् को भी मरना है और कापुरुष को भी। जब मरण अवश्यम्भावी है, तो फिर धीरतापूर्वक मरना ही उत्तम है। ३३१. इक्कं पंडियमरणं, छिंदइ जाईसयाणि बहुयाणि। तं मरणं मरियव्वं, जेण मओ सुम्मओ होइ ।।३।। एक पण्डितमरण (ज्ञानपूर्वक मरण) सैकड़ों जन्मों का नाश कर देता है । अतः इस तरह मरना चाहिए, जिससे मरण सुमरण हो जाए। ३३२. चरे पयाइं परिसंकमाणो, जं किंचि पासं इह मन्नमाणो। लाभंतरे जीविय वूहइत्ता, पच्चा परिण्णाय मलावधंसी ॥४॥ साधक पग-पग पर दोषों की आशंका (सम्भावना) को ध्यान में रखकर चले। छोटे-से-छोटे दोष को भी पाश समझे, उससे सावधान रहे । नये-नये लाभ के लिए जीवन को सुरक्षित रखे । जब जीवन तथा देह से लाभ होता हुआ दिखाई न दे तो परिज्ञानपूर्वक शरीर का त्याग कर दे। ३३३. संलेहणा य दुविहा, अभितरिया य बाहिरा चेव। अभितरिया कसाए, बाहिरिया होइ य सरीरे ॥५॥ संलेखना दो प्रकार की है-आभ्यन्तर और बाह्य । कषायों को कृश करना आभ्यन्तर संलेखना है और शरीर को कृश करना बाह्य संलेखना। ३३४. न वि कारणं तणमओ संथारो, न वि य फासुया भूमी। अप्पा खलु संथारो, होइ विसुद्धो मणो जस्सो ॥६॥ जिसका मन विशुद्ध है, उसका शय्या न तो तृणमय है और न प्रासुक भूमि है। उसकी आत्मा ही उसका संस्तारक है। ३३५-६. न वितं सत्यं च विसं च, दुप्पउतु व्व कुणइ वेयालो। जंतं व दुप्पउत्तं, सप्पु व्व पमाइणो कुद्धो ॥७॥ जं कुणइ भावसल्लं, अणुद्धियं उत्तमट्ठकालम्मि। दुल्लहबोहीयत्तं, अणंत-संसारियत्तं च ॥८॥ दुष्पयुक्त शस्त्र, विष, भूत तथा दुष्पयुक्त यन्त्र तथा क्रुद्ध सर्प आदि प्रमादी का उतना अनिष्ट नहीं करते, जितना समाधिकाल में मन में रहे हुए माया, मिथ्यात्व संलेखनासूत्र/६९
SR No.002278
Book TitleJinsutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth
Publication Year2001
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy