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________________ व निदान शल्य करते हैं । इससे बोधि की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है तथा संसार का अन्त नहीं होता। ३३७. सम्मइंसणरत्ता, अनियाणा सुक्कलेसमोगाढा। इय जे मरंति जीवा, तेसिं सुलहा भवे बोही ॥९॥ जो जीव सम्यग्दर्शन के अनुरागी होकर, निदान-रहित तथा शुक्ललेश्यापूर्वक मरण को प्राप्त होते हैं, उनके लिए बोधि की प्राप्ति सुलभ होती है। ३३८. मोक्खपहे अप्पाणं, ठवेहि तं चेव झाहि तं चेव। तत्येव विहर णिच्चं, मा विहरसु अन्नन्दव्वेसु ॥१०॥ अतः हे भव्य ! तू मोक्ष-मार्ग में ही आत्मा को स्थापित कर । उसी का ध्यान कर । उसी का अनुभव कर तथा उसी में विहार कर । अन्य द्रव्यों में विहार मत कर । २७. निर्वाणसूत्र ३३९. सव्वे सरा नियटुंति, तक्का जत्थ न विज्जइ। मई तत्थ न गाहिया, ओए अप्पइट्ठाणस्स खेयन्ने ॥४॥ जहाँ से सारे स्वर लौट जाते हैं, जहाँ तर्क का प्रवेश नहीं है, जिसे बुद्धि ग्रहण नहीं कर सकती, जो ओज-प्रतिष्ठान-खेद रहित है, वही मोक्ष है। ३४०. ण वि दुक्खं ण वि सुक्खं, ण वि पीडा णेव विज्जदे बाहा। ण वि मरणं ण वि जणणं, तत्थेव य होइ णिव्वाणं ॥५॥ जहाँ न दुःख है न सुख, न पीड़ा है न बाधा, न मरण है न जन्म, वहीं निर्वाण है। ३४१. ण वि इंदिय उवसग्गा, ण वि मोहो विम्हयो ण णिद्दा य । ण य तिण्हा णेव छुहा, तत्व य होइ णिव्वाणं ॥६ ।। जहाँ न इन्द्रियाँ हैं न उपसर्ग, न मोह हैं न विस्मय, न निद्रा है न तृष्णा और न भूख, वहीं निर्वाण है। ३४२. ण वि कम्मं णोकम्मं, ण वि चिंता णेव अट्टरुद्दाणि । ___ण वि धम्मसुक्कझाणे, तत्थेव य होइ णिव्वाणं ॥७॥ जहाँ न कर्म है न नोकर्म, न चिन्ता है न आर्त-रौद्र ध्यान, न धर्मध्यान है और न जिनसूत्र/७०
SR No.002278
Book TitleJinsutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth
Publication Year2001
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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