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३२५. लाउअ एरण्डफले, अग्गीधूमे उसू धणुविमुक्के।
गइ पुव्वपओगेणं, एवं सिद्धाण वि गती तु ॥१॥ जैसे मिट्टी का लेप दूर होते ही तुम्बी ऊपर तैरने लग जाती है, एरण्ड के फल के फूटने पर उसके बीज ऊपर को ही जाते हैं, अग्नि या धूम की गति स्वभावतः ऊपर की ओर होती है, धनुष से छूटा हुआ बाण पूर्व-प्रयोग से गतिमान् होता है, वैसे ही सिद्ध जीवों की गति भी स्वभावतः ऊपर की ओर होती है।
३२६. कम्ममलविष्पमुक्को, उड्डं लोगस्स अंतमधिगंता।
सो सव्वणाणदरिसी, लहदि सुहमणिदियमणंतं ।।२ ।। कर्म-मल से विमुक्त जीव ऊपर लोकान्त तक जाता है और वहाँ वह सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी के रूप में अतीन्द्रिय अनन्तसुख भोगता है।
३२७. चक्किकुरुफणिसुरेदेसु, अहमिदे जं सुहं तिकालभवं ।
तत्तो अणंतगुणिदं, सिद्धाणं खणसुहं होदि ॥३॥ चक्रवर्ती, फणीन्द्र, सुरेन्द्र एवं अहमिन्द्रों को त्रिकाल में जितना सुख मिलता है, उस सबसे भी अनन्तगुना सुख सिद्धों को एक क्षण में अनुभव होता है ।
३२८. अट्टविहकम्मवियडा, सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा।
अट्ठगुणा कयकिच्चा, लोयग्गणिवासिणो सिद्धा ॥२१ ।। ऐसे सिद्ध जीव अष्टकर्मों से रहित, सुखमय, निरंजन, नित्य, अष्टगुण-सहित तथा कृतकृत्य होते हैं और सदैव लोक के अग्रभाग में निवास करते हैं।
२६. संलेखनासूत्र ३२९. सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ।
संसारो अण्णवो वुत्तो, जंतरंति महेसिणो॥१॥ शरीर को नाव कहा गया है और जीव को नाविक । यह संसार समुद्र है, जिसे महर्षिजन तैर जाते हैं।
३३०. धीरेण विमरियव्वं, काउरिसेण वि अवस्समरियव्वं ।
तम्हा अवस्समरणे, वरं खु धीरत्तणे मरिठं ॥२॥ जिनसूत्र/६८