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________________ ३२०. सकदकफलजलं वा, सरए सरवाणियं व णिम्मलयं । सयलोरसंतमोहो, उवसंत-कसायओ होदि ॥१५ ।। जैसे निर्मली-फल से युक्त जल अथवा शरदकालीन सरोवर का जल मिट्टी के बैठ जाने से निर्मल होता है, वैसे ही जिनका सम्पूर्ण मोह उपशान्त हो गया है, वे निर्मल परिणामी उपशान्त-कषाय कहलाते हैं। ३२१. णिस्सेसखीणमोहो, फलिहामल-भायणुदय-समचित्तो। खीणकसाओ भण्णइ णिग्गंथो वीयराएहिं ॥१६॥ सम्पूर्ण मोह पूरी तरह नष्ट हो जाने से जिनका चित्त स्फटिकमणि के पात्र में रखे हुए स्वच्छ जल की तरह निर्मल हो जाता है, उन्हें वीतरागदेव ने क्षीण-कषाय निर्ग्रन्थ कहा है। ३२२-३. केवलणाणदिवायर-किरणकलाव-प्पणासिअण्णाणो। णवकेवल-लडुग्गम-पावियपरमप्प-ववएसो ॥१७॥ असहायणाणदंसण-सहिओ विह केवली ह जोएण। जुत्तो त्ति सजोइजिणो, अणाइणिहणारिसे वुत्तो ॥१८॥ केवलज्ञान रूपी दिवाकर की किरणों के समूह से जिनका अज्ञान-अन्धकार सर्वथा नष्ट हो जाता है तथा नौ केवललब्धियों (सम्यक्त्व, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य, दान, लाभ, भोग व उपभोग) के प्रकट होने से जिन्हें परमात्मा की संज्ञा प्राप्त हो जाती है, वे इन्द्रियादि की सहायता की अपेक्षा न रखने वाले ज्ञान-दर्शन से युक्त होने के कारण केवली और काययोग से युक्त होने के कारण सयोगी केवली (तथा घातिकर्मों के विजेता होने के कारण) जिन कहलाते हैं । ऐसा अनादिनिधन जिनागम में कहा गया है । ३२४. सेलेसिं संपत्तो, णिरुद्धणिस्सेस-आसओ जीवो। कम्मरयविप्पमुक्को, गयजोगो केवली होइ ॥१९॥ जो शील के स्वामी हैं, जिनके सभी नवीन कर्मों का आस्रव अवरुद्ध हो गया है, तथा जो पूर्वसंचित कर्मों से सर्वथा मुक्त हो चुके हैं, वे अयोगीकेवली कहलाते गुणस्थानसूत्र/६७
SR No.002278
Book TitleJinsutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth
Publication Year2001
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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