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३१५. णट्ठासेसपमाओ, वयगुणसीलोलिमंडिओ णाणी ।
अणुवसमओ अखवओ, झाणणिलीणो हु अप्पमत्तो सो॥१० ।। जिसका व्यक्त-अव्यक्त सम्पूर्ण प्रमाद निःशेष हो गया है, जो ज्ञानी होने के साथ-साथ व्रत, गुण और शील की माला से सुशोभित हैं, फिर भी जो न तो मोहनीय कर्म का उपशम करता है और न क्षय करता है केवल आत्मध्यान में लीन रहता है, वह ज्ञानी अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कहलाता है ।
३१६. एयम्मि गुणट्ठाणे, विसरिससमयट्ठिएहिं जीवेहिं ।
पुनमपत्ता जम्हा, होति अपुव्वा हु परिणामा ।।११।। इस आठवें गुणस्थान में विसदृश (विभिन्न) समयों में स्थित जीव ऐसे-ऐसे अपूर्व परिणामों (भावों) को धारण करते हैं, जो पहले कभी भी नहीं हो पाये थे । इसीलिए
इसका नाम अपूर्वकरण गुणस्थान है। ३१७. तारिसपरिणामट्ठियजीवा, हु जिणेहिं गलियतिमिरेहिं ।
मोहस्सऽपुव्वकरणा, खवणुवसमणुज्जया भाणया ॥१२॥ अज्ञान-अंधकार को दूर करने वाले ज्ञानसूर्य जिनेन्द्रदेव ने उन अपूर्व-परिणामी जीवों को मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम करने में तत्पर कहा है । (मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम तो नौवें और दसवें गुण-स्थानों में होता है, किन्तु उसकी तैयारी इस अष्टम गुणस्थान में ही शुरू हो जाती है ।)
३१८. होति अणियट्टिणो ते, पडिसमयं जेसिमेक्कपरिणामा।
विमलयरझाणहुयवह-सिहार्हि गिद्दडकम्मवणा ॥१३॥ वे जीव अनिवृत्तिकरण गुणस्थान वाले होते हैं, जिनके प्रतिसमय/निरन्तर एक ही परिणाम होता है । (इनके भाव अष्टम गुणस्थान वालों की तरह विसदृश नहीं होते ।) ये जीव निर्मलतर ध्यानरूपी अग्नि-शिखाओं से कर्म-वन को भस्म कर देते हैं।
३१९. कोसुंभो जिह राओ, अब्भंतरदो य सुहुमरत्तो य।
एवं सुहुमसराओ, सुहुमकसाओ त्ति णायव्वो ॥१४॥ कुसुम्भ (केसर) के हल्के रंग की तरह जिनके अन्तरंग में केवल सूक्ष्म राग शेष
रह गया है, उन्हें सूक्ष्म-सराग या सूक्ष्म-कषाय जानना चाहिए। जिनसूत्र/६६