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________________ ३१०. सम्मत्तरयणपव्वय-सिहरादो मिच्छभावसमभिमुहो। णासियसम्मत्तो सो, सासणणामो मुणेयव्वो ॥५॥ सम्यक्त्व-रत्नरूपी पर्वत के शिखर से गिरकर जो जीव मिथ्यात्व-भाव की ओर अभिमुख हो गया है, परन्तु सम्यक्त्व के नष्ट हो जाने पर भी जिसने अभी साक्षात्-रूपेण मिथ्यात्वभाव में प्रवेश नहीं किया है, उस मध्यवर्ती अवस्था को सासादन नामक गुणस्थान कहते हैं। ३११. दहिगुडमिव व मिस्सं, पिहुभावं णेव कारिदुं सक्कं । एवं मिस्सयभावो, सम्मामिच्छो त्ति णायव्वो ॥६॥ दही और गुड़ के मेल से स्वाद की तरह सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का मिश्रित भाव या परिणाम—जिसे अलग नहीं किया जा सकता, सम्यक्-मिथ्यात्व या मिश्र गुणस्थान कहलाता है। ३१२. णो इंदिएसु विरदो, णो जीवे थावरे तसे चावि। जो सद्दहइ जिणत्तुं, सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥७॥ जो न तो इन्द्रिय-विषयों से विरत है और न त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा से विरत है, लेकिन जिनेन्द्र-प्ररूपित तत्त्वार्थ का श्रद्धान करता है, वह व्यक्ति अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती कहलाता है। ३१३. जो तसवहाउविरदो, णो विरओ एत्थ-थावरवहाओ। पडिसमयं सो जीवो, विरयाविरओ जिणेक्कमई ॥८॥ जो त्रस (द्विन्द्रियादि) जीवों की हिंसा से तो विरत हो गया है, परन्तु एकेन्द्रिय स्थावर जीवों (वनस्पति आदि) की हिंसा से विरत नहीं हुआ है तथा जिनेश्वर भगवान् में एकनिष्ठ श्रद्धा रखता है, वह श्रावक देशविरत गुणस्थानवर्ती कहलाता है। ३१४. वत्तावत्तपमाए, जो वसइ पमत्तसंजओ होइ । सयलगुणसीलकलिओ, महव्वई चित्तलायरणो॥९॥ जिसने महाव्रत धारण कर लिये हैं, सकल शील-गुण से समन्वित हो गया है, फिर भी अभी जिसमें व्यक्त-अव्यक्तरूप में प्रमाद शेष है, वह प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कहलाता है । इसका व्रताचरण किंचित् सदोष होता है। गुणस्थानसूत्र/६५
SR No.002278
Book TitleJinsutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth
Publication Year2001
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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