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________________ पक्षपात न करना, भोगों का निदान न करना, सबमें समदर्शी रहना, राग, द्वेष तथा स्नेह से दूर रहना-शुक्ललेश्या के लक्षण हैं। ३०५. लत्ता लेस्सासोधी अज्झवसाण-विसोधीए होइ जीवस्स। अज्झवसाणविसोधि, मंदकसायस्स णायव्वा ॥१३॥ आत्मपरिणामों में विशुद्धि आने से लेश्या की विशुद्धि होती है और कषायों की मन्दता से परिणाम विशुद्ध होते हैं। २५. गुणस्थानसूत्र ३०६. जेहिंदु लक्खिज्जते, उदयादिसु संभवेहिं भावेहिं । जीवा ते गुणसण्णा, णिहिट्ठा सव्वदरिसीहि ॥१॥ मोहनीय आदि कर्मों के उदय (उपशम, क्षय, क्षयोपशम) आदि से होने वाले जिन परिणामों से युक्त जीव पहचाने जाते हैं, उनको सर्वदर्शी जिनेन्द्रदेव ने 'गुण' या 'गुणस्थान' की संज्ञा दी है। अर्थात् सम्यक्त्व आदि की अपेक्षा जीवों की अवस्थाएँ–श्रेणियाँ—भूमिकाएँ गुणस्थान कहलाती हैं। ३०७.८. मिच्छो सासण मिस्सो, अविरदसमो य देसविरदो य। विरदो पमत्त इयरो, अपुव्व अणियट्टि सुहुमो य॥२ ।। उवसंत खीणमोहो, सजोगिकेवलिजिणो अजोगी य। चोद्दस गुणट्ठाणाणि य, कमेण सिद्धा य णायव्वा ॥३॥ मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगिकेवलीजिन, अयोगिकेवलीजिन-ये क्रमशः चौदह गुणस्थान हैं । सिद्धजीव गुणस्थानातीत होते हैं। ३०९. तं मिच्छत्तं जमसद्दहणं, तच्चाण होदि अत्थाणं। संसइदमभिग्गहियं, अणभिग्गहियं तु तं तिविहं ॥४॥ तत्त्वार्थ के प्रति श्रद्धा का अभाव मिथ्यात्व है । यह तीन प्रकार का है—संशयित, अभिगृहीत (सत्य पर अश्रद्धा) और अनभिगृहीत (जन्मजात अश्रद्धा)। जिनसूत्र/६४
SR No.002278
Book TitleJinsutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth
Publication Year2001
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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