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________________ २८८. जरामरणवेगेणं, वुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ।।१४।। जरा और मरण के तेज प्रवाह में बहते-डूबते हुए प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है तथा उत्तम शरण है। २८९. माणुस्सं विग्गहं लधु, सुई धम्मस्स दुल्लहा। जं सोच्चा पविज्जति तवं खंतिमहिंसयं ॥१५॥ मनुष्य-शरीर प्राप्त होने पर भी ऐसे धर्म का श्रवण तो दुर्लभ ही है, जिसे सुनकर तप, क्षमा और अहिंसा को प्राप्त किया जाए। २९०. आहच्च सवणं ल , सद्धा परमदुल्लहा। सोच्चा नेआउयं मग्गं, बहवे परिभस्सई ॥१६॥ कदाचित् धर्म का श्रवण हो भी जाये, तो उस पर श्रद्धा होना परम दुर्लभ है। क्योंकि बहुत-से लोग न्यायसंगत मोक्षमार्ग का श्रवण करके भी उससे विचलित हो जाते हैं। २९१. सुइंच लद्धं सद्धंच, वीरियं पुण दुल्लहं । बहवे रोयमाणा वि, नो एणं पडिवज्जए॥१७॥ धर्म-श्रवण तथा श्रद्धा हो जाने पर भी पुरुषार्थ होना और दुर्लभ है । बहुत-से लोग संयम में अभिरुचि रखते हुए भी उसे सम्यक्-रूपेण स्वीकार नहीं कर पाते। २९२. भावणाजोग-सुद्धप्पा, जले णावा व आहिया। नावा व तीर-संपण्णा, सव्वदुक्खा तिउट्टइ ॥१८॥ भावना-योग से शुद्ध आत्मा को जल में नौका के समान कहा गया है। जैसे अनुकूल पवन का सहारा पाकर नौका किनारे पर पहुँच जाती है, वैसे ही शुद्ध आत्मा संसार के पार पहुँचती है, जहाँ उसके समस्त दुःखों का अन्त हो जाता अनुप्रेक्षासूत्र/६१
SR No.002278
Book TitleJinsutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth
Publication Year2001
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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