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२८२. अणुसोअइ अन्नजणं, अन्नभवंतरगयं तु बालजणो।
नवि सोयइ अप्पाणं, किलिस्समाणं भवसमुद्दे ॥८॥ अज्ञानी मनुष्य अन्य भवों में गये हुए दूसरे लोगों के लिए तो शोक करता है, किन्तु भव-सागर में कष्ट भोगने वाली अपनी आत्मा की चिन्ता नहीं करता !
२८३. जो जाणिऊण देहं, जीवसरूवादु तच्चदो भिन्नं ।
अप्पाणं पि य सेवदि, कज्जकरं तस्स अण्णत्तं ।।९।। जो शरीर को जीव के स्वरूप से तत्त्वतः भिन्न जानकर आत्मा का अनुचिन्तन करता है, उसकी अन्यत्व भावना कार्यकारी है।
२८४. मंसट्ठियसंघाए, मुत्तपुरीसभरिए नवच्छिद्दे।
असुइं परिस्सवंते, सुहं सरीरम्मि किं अत्थि? ॥१०॥ मांस और हड्डी के मेल से निर्मित, मल-मूत्र से भरे, नौ छिद्रों के द्वारा अशुचि पदार्थ को बहाने वाले शरीर में क्या सुख हो सकता है?
२८५. एदे मोहय-भावा, जो परिवज्जेइ उवसमे लीणो।
हेयं ति मन्नमाणो, आसवअणुवेहणं तस्स ॥११॥ मोह के उदय से उत्पन्न होने वाले इन सब भावों को त्यागने योग्य जानकर उपशम (साम्य) भाव में लीन व्यक्ति इनका त्याग कर देता है। यह उसकी आस्रव-अनुप्रेक्षा है।
२८६. मणवयणकायगुत्तिं-दियस्स समिदीसु अप्पमत्तस्स ।
आसवदारणिरोहे, णवकम्मरयासवो ण हवे ॥१२॥ मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति के द्वारा इन्द्रियों को वश में करने वाला तथा समितियों के पालन में अप्रमत्त साधक के आस्रवद्वारों का निरोध हो जाने पर नवीन कर्म-रज का आस्रव नहीं होता है । यह संवर-अनुप्रेक्षा है ।
२८७. बंधप्पदेस-ग्गलणं णिज्जरणं इदि जिणे हि पणत्तं ।
जेण हवे संवरणं तेण दुणिज्जरण मिदि जाण ।।१३।। बँधे हुए कर्म-प्रदेशों के क्षरण को निर्जरा कहा जाता है । जिन कारणों से संवर
होता है, उन्हीं कारणों से निर्जरा होती है। जिनसूत्र/६०