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________________ २७६. अद्धवमसरणमेगत्त-मन्नत्तसंसारलोयमसुइत्तं। . आसवसंवरणिज्जर, धम्मं बोहिं च चिंतिज्ज ॥२ ।। अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि—इन बारह भावनाओं का चिन्तवन करना चाहिए। २७७. जम्मं मरणेण समं, संपज्जइ जोव्वणं जरासहियं । लच्छी विणास-सहिया, इय सव्वं भंगुर-मुणह ।।३।। जन्म मरण के साथ जुड़ा हुआ है और यौवन वृद्धावस्था के साथ । लक्ष्मी चंचला है। इस प्रकार संसार में सब-कुछ क्षण-भंगुर है—अनित्य है। २७८. वित्तं पसवो य णाइओ, तं बाले सरणं ति मण्णइ। एए मम तेसिं वा अहं, णो ताणं सरणं ण विज्जई ॥४॥ अज्ञानी जीव धन, पशु तथा ज्ञातिवर्ग को अपना रक्षक या शरण मानता है कि ये मेरे हैं और मैं इनका हूँ । किन्तु वास्तव में ये सब न तो रक्षक हैं और न शरण । २७९. रयणत्तय-संजुत्तो, जीवो वि हवेइ उत्तमं तित्थं । संसारं तरइ जदो, रयणत्तय-दिव्व-णावाए ॥५॥ वास्तव में रत्नत्रय से सम्पन्न जीव ही उत्तम तीर्थ (तट) है, क्योंकि वह रत्नत्रय रूपी दिव्य नौका द्वारा संसार-सागर से पार करता है। २८०. पत्तेयं पत्तेयं नियगं, कम्मफलमणुहवंताणं । को कस्स जए सयणो? को कस्स व परजणो भणिओ? ॥६॥ प्रत्येक जीव अपने-अपने कर्मफल को अकेला ही भोगता है। ऐसी स्थिति में कौन किसका स्वजन है और कौन किसका परजन? २८१. एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ। सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥७॥ . ज्ञान और दर्शन से संयुक्त मेरी एक आत्मा ही शाश्वत है। शेष सब बाह्य भाव हैं, संयोग-सम्बन्ध मात्र हैं। अनुप्रेक्षासूत्र/५९
SR No.002278
Book TitleJinsutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth
Publication Year2001
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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