SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वाला ध्याता सुखासन से स्थित हो समाधि में लीन होता है। २६०. पलियंकं बंधेलं निसिद्धमण-वयणकायवावारो। नासग्गनिमियनयणो, मंदीकयसासनीसासो ॥७॥ वह ध्याता पल्यंकासन बाँधकर और मन-वचन-काय के व्यापार को रोककर दृष्टि को नासिकाग्र पर स्थित करके मन्द-मन्द श्वासोच्छ्वास ले। २६१. गरहियनियदुच्चरिओ, खामियसत्तो नियत्तियपमाओ। निच्चलचित्तो ता झाहि जाव पुरओव्व पडिहाइ ॥८॥ वह अपने पूर्वकृत बुरे आचरण की गर्दा करे, सब प्राणियों से क्षमाभाव चाहे, प्रमाद को दूर करे और चित्त को निश्चल करके तब तक ध्यान करे जब तक पूर्वबद्ध कर्म नष्ट न हो जायें। २६२. थिरकयजोगाणं पुण, मुणीण झाणे सुनिच्चलमणाणं। गामम्मि जणाइण्णे, सुण्णे रणे व ण विसेसो ॥९॥ जिन्होंने अपने योग अर्थात् मन-वचन-काय को स्थिर कर लिया है और जिनका ध्यान में चित्त पूरी तरह निश्चल हो गया है, उन मुनियों के ध्यान के लिए घनी आबादी के ग्राम अथवा शून्य अरण्य में कोई अन्तर नहीं रह जाता। २६३. जे इदियाणं विसया मणुण्णा, न तेसु भावं निसिरे कयाइ। न याऽमणुण्णेसु मणं पि कुज्जा, समाहिकामे समणे तवस्सी ॥१०॥ समाधि की भावना वाला तपस्वी-श्रमण इन्द्रियों के अनुकूल विषयों में कभी रागभाव न करे और प्रतिकूल विषयों में मन से भी द्वेषभाव न करे। २६४. सुविदिय-जगस्सभावो, निस्संगो निब्भओ निरासो य। वेरग्ग-भावियमणो, झाणंमि सुनिच्चलो होइ ॥११॥ जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित है, निःसंग, निर्भय तथा आशारहित है तथा जिसका मन वैराग्य-भावना से युक्त है, वही ध्यान में सुनिश्चिल-भली-भाँति स्थित होता है। जिनसूत्र/५६
SR No.002278
Book TitleJinsutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth
Publication Year2001
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy