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२६५. पुरीसायारो अप्पा, जोई वरणाणदंसण-समग्गो।
जो झायंदि सो जोई, पावहरो हवदि णिबंदो ॥१२ ।। जो योगी पुरुषाकार तथा केवलज्ञान व केवलदर्शन से पूर्ण आत्मा का ध्यान करता है, वह कर्मबन्धन को नष्ट करके निर्द्वन्द्व हो जाता है।
२६६. देहविवित्तं पेच्छइ अप्पाणं तह य सव्वसंजोगे।
देहोवहि-वोसग्गं, निस्संगो सव्वहा कुणइ ॥१३॥ ध्यान-योगी अपनी आत्मा को शरीर तथा समस्त बाह्य संयोगों से भिन्न देखता है। वह देह तथा उपधि का व्युत्सर्ग अर्थात् त्याग करके निःसंग हो जाता है।
२६७. णाहं होमि परेसिं, ण मे परे संति णाणमहमेक्को।।
इदि जो झायदि झाणे, सो अप्पाण हवदि झादा ॥१४॥ वही श्रमण आत्मा का ध्याता है जो ध्यान में चिन्तवन करता है कि “मैं न 'पर' का हूँ, न 'पर' पदार्थ या भाव मेरे हैं, मैं तो एक शुद्ध-बुद्ध ज्ञानमय चैतन्य हूँ।"
२६८. झाणट्ठिओ हु जोई, जइणो संवेय णिययअप्पाणं ।
तो ण लहइ तं सुद्धं, भग्गविहीणो जहा रयणं ॥१५॥ ध्यान में स्थित योगी यदि अपनी आत्मा का संवेदन नहीं करता तो वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता; जैसे कि भाग्यहीन व्यक्ति रत्न प्राप्त नहीं कर सकता।
२६९. भावेज्ज अवत्थतियं, पिंडत्थ-पयत्थ-रूवरहियत्तं ।
छउमस्थ-केवलितं, सिद्धत्तं चेव तस्सत्थो ॥१६ ।। ध्यान करने वाला साधक पिंडस्थ, पदस्थ और रूपातीत—इन तीनों अवस्थाओं की भावना करे। पिंडस्थ ध्यान का विषय है-छद्यस्थत्व-अर्थात् देह-विपश्यना । पदस्थध्यान का विषय है केवलित्व अर्थात कैवल्य-स्वरूप का अनुचिंतन और रूपातीतध्यान का विषय है सिद्धत्व अर्थात् शुद्ध आत्मा।
२७०. अवि झाइ से महावीरे, आसणत्थे अकुक्कुए झाणं ।
उड्डमहे तिरियं च पेहमाणे समाहिमपडिण्णे ॥१७॥ महावीर उक, आदि आसनों में स्थित और स्थिर होकर ध्यान करते थे। वे
ध्यानसूत्र/५७