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________________ कारणभूत कर्म-बीज को वैसे ही जला डालती है, जैसे वन में लगी प्रचण्ड अग्नि तृण-राशि को। २२. ध्यानसूत्र २५५. सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स य। सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते ॥१॥ जैसे शरीर में सिर और वृक्ष में उसकी जड़ मुख्य है, वैसे ही साधु के समस्त साधु-धर्मों का मूल ध्यान है। २५६. जं थिरमज्झवसाणं, तं झाणं जं चलंतयं चित्तं । तं होज्ज भावणा वा, अणुपेहा वा अहव चिंता ॥३॥ स्थिर अध्यवसान अर्थात् मानसिक एकाग्रता ही ध्यान है । चित्त की जो चंचलता है उसके तीन रूप हैं—भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता । २५७. लवण व्व सलिलजोए, झाणे चित्तं विलीयए जस्स। तस्स सुहासुहडहणो, अप्पाअणलो पयासेइ ॥४॥ जैसे पानी का योग पाकर नमक विलीन हो जाता है, वैसे ही जिसका चित्त निर्विकल्प समाधि में लीन हो जाता है, उसकी चिर संचित शुभाशुभ कर्मों को भस्म करने वाली, आत्मरूप अग्नि प्रकट होती है। २५८. जस्स न विज्जदि रागो, दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो। तस्स सुहासुहृडहणो, झाणमओ जायए अग्गी ॥५॥ जिसके राग-द्वेष और मोह नहीं है तथा मन-वचन-कायरूप योगों का व्यापार नहीं रह गया है, उसमें समस्त शुभाशुभ कर्मों को जलाने वाली ध्यानाग्नि प्रकट होती है। २५९. पुव्वाभिमुहो उत्तरमुहो व, होऊण सुइ-समायारो। झाया समाहिजुत्तो, सहासणत्यो सुसरीरो ॥६॥ पूर्व या उत्तर दिशाभिमुख होकर बैठने वाला शुद्ध आचार तथा पवित्र शरीर ध्यानसूत्र/५५
SR No.002278
Book TitleJinsutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth
Publication Year2001
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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