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२४९. णाणेण ज्झाणसिज्झी, झाणादो सव्वकम्मणिज्जरणं । णिज्जरणफलं मोक्खं, णाणबभासं तदो कुज्जा ॥ २३ ॥
ज्ञान से ध्यान की सिद्धि होती है । ध्यान से सब कर्मों की निर्जरा (क्षय) होती है । निर्जरा का फल मोक्ष है । अतः सतत ज्ञानाभ्यास करना चाहिए ।
२५०. नाणमेगग्गचित्तो अ, ठिओ अ ठावयई परं । आणि अ अहिज्जित्ता, रओ सुअसमाहिए ॥ २४ ॥
अध्ययन के द्वारा व्यक्ति को ज्ञान और चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है । वह स्वयं धर्म में स्थित होता है और दूसरों को भी स्थिर करता है तथा अनेक प्रकार के श्रुतका अध्ययन कर वह श्रुतसमाधि में रत हो जाता है
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२५१. सयणासणठाणे वा, जे उ भिक्खू न वावरे ।
कायस्स विउस्सग्गो, छट्ठो सो परिकित्तिओ ।। २५ ।।
साधक का शयन, आसन और खड़े होने में व्यर्थ का कायिक व्यापार न करना, काष्ठवत् रहना, छठा कायोत्सर्ग तप है ।
२५२. देहमइजड्डुसुद्धी, सुहदुक्खतितिक्खया अणुप्पेहा । झायइ य सुहं झाणं, एगग्गो काउसग्गमि ॥ २६ ॥
कायोत्सर्ग करने से देह और बुद्धि की जड़ता की शुद्धि होती है, सुख-दुःख सहने की शक्ति प्राप्त होती है, भावों की अनुप्रेक्षा होती है और शुभ ध्यान के लिए एकाग्रता की प्राप्ति होती है ।
२५३. तेसिं तु तवो ण सुद्धो, निक्खंता जे महाकुला ।
जं नेवन्ने वियाणंति, न सिलोगं पवेज्जइ ॥ २७ ॥
उन महाकुल वालों का तप भी शुद्ध नहीं है, जो प्रव्रज्या धारणकर पूजा-सत्कार के लिए तप करते हैं । तप इस तरह करना चाहिए कि औरों को पता तक न चले और अपने तप की किसी के समक्ष प्रशंसा भी न हो ।
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२५४. नाणमयवायसहिओ, सीलुज्जलिओ तवो मओ अग्गी ।
संसारकरणबीयं, दहइ दवग्गी व तणरासिं ॥ २८ ॥
ज्ञानमयी वायु सहित तथा शील द्वारा प्रज्वलित तपोमयी अग्नि संसार के
जिनसूत्र / ५४