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आचार्य तथा सर्वसंघ की आराधना होती है ।
२४४. विणयाहीया विज्जा, देंति फलं इह परे य लोगम्मि ।
न फलंति विणयहीणा, सस्साणि व तोयहीणाइं ॥ १८ ॥ विनयपूर्वक प्राप्त की गयी विद्या इस लोक तथा परलोक में पलदायिनी होती है और विनयविहीन विद्या वैसे ही फलप्रद नहीं होती, जैसे बिना जल के धान्य नहीं
उपजता ।
२४५. तम्हा सव्वपयत्ते, विणीयत्तं मा कदाइ छंडेज्जा । अप्पसुदो वि य पुरिसो, खवेदि कम्माणि विणण ॥ १९ ॥
इसलिए सब प्रकार का प्रयत्न करके विनय को कभी नहीं छोड़ना चाहिए । अल्पश्रुत का अभ्यासी पुरुष भी विनय के द्वारा कर्मों का नाश करता है ।
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२४६. अद्धाणतेण - सावद - राय - णदीरोधणासिवे ओमे वेज्जावच्चं उत्तं, संगहसारक्खणोवेदं ॥ २० ॥
जो मार्ग में चलने से थक गये हैं, चोर, श्वापद (हिस्र पशु), राजा द्वारा व्यथित, नदी की रुकावट, मरी (प्लेग) आदि रोग तथा दुर्भिक्ष से पीड़ित हैं, उनकी सार-सम्हाल, सेवा तथा रक्षा करना वैयावृत्य है ।
२४७. पूयादिसु णिरवेक्खो, जिण-सत्थं जो पढेइ भत्तीए । कम्ममल-सोहणङ्कं सुयलाहो सुहयरो तस्स ॥ २१ ॥
आदर-सत्कार की अपेक्षा से रहित होकर जो कर्मरूपी मल को धोने के लिए भक्तिपूर्वक जिनशास्त्रों को पढ़ता है, उसका श्रुतलाभ स्व-पर सुखकारी होता है ।
२४८. सज्झायं जाणंतो, पंचिदियसंवुडो तिगुत्तो य ।
होड़ य एकग्गमणो, विणएण समाहिओ साहू ॥ २२ ॥
स्वाध्यायी पुरुष पाँचों इन्द्रियों से संवृत, तीन गुप्तियों से युक्त, विनय से समाहित तथा एकाग्रमन होता है ।
तपसूत्र / ५३