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एवमणुद्धियदोसो, माइल्लो तेणं दुक्खिओं होइ । सो चेव चत्तदोसो, सुविसुद्धो निव्वुओ होइ ॥१२॥ जैसे काँटा चुभने पर सारे शरीर में वेदना होती है और काँटे के निकल जाने पर शरीर निःशल्य अर्थात् सर्वांग सुखी हो जाता है,वैसे ही अपने दोषों को प्रकट न करने वाला मायावी दुःखी या व्याकुल रहता है और उनको गुरु के
समक्ष प्रकट कर देने पर सुविशुद्ध होकर सुखी हो जाता है । २३९. जो पस्सदि अप्पाणं, समभावे संठवित्तु परिणामं ।
आलोयणमिदि जाणह परमजिणंदस्स उवएसं ॥१३॥ अपने परिणामों को समभाव में स्थापित करके आत्मा को देखना ही आलोचना है । ऐसा जिनेन्द्रदेव का उपदेश है।
२४०. अब्भुट्ठाणं अंजलिकरणं, तहेवासणदायणं ।
गुरुभत्तिभावसुस्सूसा, विणओ एस वियाहिओ ॥१४॥ गुरु तथा वृद्धजनों के समक्ष आने पर खड़े होना, हाथ जोड़ना, उन्हें उच्च आसन देना, गुरुजनों की भावपूर्वक भक्ति तथा सेवा करना विनय तप है।
२४१. एकम्मि हीलियम्मि, हीलिया हुंति ते सव्वे ।
एकम्मि पूइयम्मि, पूइया हुंति सव्वे ॥१५ ।। एक के तिरस्कार में सबका तिरस्कार होता है और एक की पूजा में सबकी पूजा होती है । (इसलिए जहाँ कहीं कोई पूज्य या वृद्धजन दिखाई दें, उनका विनय करना चाहिए।)
२४२. विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे।
विणयाओ विप्पमुक्कस्स, कओ धम्मो को तवो? ॥१६॥ विनय जिनशासन का मूल है। संयम तथा तप से विनीत बनना चाहिए। जो विनय से रहित है, उसका कैसा धर्म और कैसा तप?
२४३. विणओ मोक्खदारं, विणयादो संजमो तवो णाणं।
विणएणाराहिज्जदि, आइरिओ सव्वसंघो य ॥१७ ।। विनय मोक्ष का द्वार है । विनय से संयम, तप तथा ज्ञान प्राप्त होता है । विनय से
जिनसूत्र/५२