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________________ २३२. बलं थामं च पेहाए, सद्धामारोग्गमप्पणो। खेत्तं कालं च विन्नाय, तहप्पाणं निजुंजए॥६॥ अपने बल, तेज, श्रद्धा तथा आरोग्य का निरीक्षण करके तथा क्षेत्र और काल को जानकर अपने को उपवास में नियुक्त करना चाहिए। क्योंकि शक्ति से अधिक उपवास करने से हानि होती है। २३३. उवसमणो अक्खाणं, उववासो वण्णिदो समासेण। तम्हा भुंजंता वि य, जिदिदिया होति उववासा ॥७॥ संक्षेप में इन्द्रियों के उपशमन को ही उपवास कहा गया है । जितेन्द्रिय लोग भोजन करते हुए भी उपवासी ही होते हैं। २३४. छट्टट्ठमदसमदुवालसेहिं अबहुसुयस्स जा सोही। तत्तो बहुतरगुणिया, हविज्ज जिमियस्स नाणिस्स ॥८॥ अबहुश्रुत अर्थात् अज्ञानी तपस्वी की जितनी विशुद्धि दो-चार दिनों के उपवास से होती है, उससे बहुत अधिक विशुद्धि नित्य भोजन करने वाले ज्ञानी की होती है। २३५. पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झावो। झाणं च विउस्सग्गो, एसो अन्भितरो तवो॥९॥ प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग)-इस तरह छह प्रकार का आभ्यन्तर तप है । २३६. जह बालो जंपन्तो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ। तं तह आलोइज्जा, मायामयविष्पमुक्को वि ॥१० ।। जैसे बालक अपने कार्य-अकार्य को सरलतापूर्वक माँ के समक्ष व्यक्त कर देता है, वैसे ही हमें भी अपने समस्त दोषों की आलोचना माया-मद (छल-छद्म) त्यागकर करनी चाहिए। २३७-८. जह कंटएण विद्धो, सव्वंगे वेयणदिओ होइ । तह चेव उद्धियम्मि उ निस्सल्लो निव्वुओ होइ ॥११॥ तपसूत्र/५१
SR No.002278
Book TitleJinsutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth
Publication Year2001
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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