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________________ २१. तपसूत्र २२७. जत्थ कसायणिरोहो, बंभं जिणपूयणं अणसणं च। सो सव्वो चेव तवो, विसेसओ मुद्धलोयंमि ॥१॥ जहाँ आत्मलाभ के लिए कषायों का निरोध, ब्रह्मचर्य का पालन, जिनपूजन तथा अनशन किया जाता है, वह सब तप है । विशेषकर मुग्ध अर्थात् भक्तजन यही तप करते हैं। २२८. हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा । न ते विज्जा तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा ॥२॥ जो मनुष्य हित-मित तथा अल्प आहार करते हैं, उन्हें कभी वैद्य से चिकित्सा कराने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। वे तो स्वयं अपने चिकित्सक होते हैं, अपनी अन्तशुद्धि में लगे रहते हैं। २२९. अणसणमूणोयरिया, भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ। काय-किलेसो संलीणया य, बज्झो तवो होइ ॥३॥ अनशन (उपवास), अवमौदर्य (आवश्यकता से कम भोजन करना), भिक्षाचर्या, रस-परित्याग, कायक्लेश और संलीनता (एकान्त शयन)—इस तरह बाह्यतप छह प्रकार का है। २३०. जे पयणुभत्तपाणा, सुयहेऊ ते तवस्सिणो समए। जो अ तवो सुयहीणो, बाहिरयो सो छुहाहारो॥४॥ जो शास्त्राभ्यास के लिए अल्प-आहार करते हैं वे ही आगम में तपस्वी माने गये हैं । श्रुतविहीन अनशन-तप तो केवल भूख का आहार करना है अर्थात् भूखे मरना है। २३१. सो नाम अणसणतवो, जेण मणोऽमंगुलं न चिंतेइ। जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न हायंति ।।५।। वास्तव में वही अनशन-तप है जिससे मन में अमंगल की चिन्ता उत्पन्न न हो, इन्द्रियों की हानि (शिथिलता) तथा मन-वचन-कायरूपयोगों की हानि (गिरावट) न हो। जिनसूत्र/५०
SR No.002278
Book TitleJinsutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth
Publication Year2001
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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