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२२२. झाणणिलीणो साहु परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं ।
तम्हा दु झाणमेव हि सव्वादिचारस्स पडिक्कमणं ॥९॥ ध्यान में लीन साधु अथवा व्यक्ति सब दोषों का परित्याग करता है। इसलिए ध्यान ही समस्त अतिचारों (दोषों) का प्रतिक्रमण है।
२२३. देवस्सिय-णियमादिसु, जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि ।
जिणगुण-चिंतणजुत्तो, काउसग्गो तणुविसग्गो ॥१०॥ दैवसिक प्रतिक्रमण के नियमों के अनुसार सत्ताईस श्वासोच्छ्वास तक अथवा उपयुक्त काल तक जिनेन्द्र भगवान् के गुणों का चिन्तवन करते हुए शरीर का ममत्व त्याग देना कायोत्सर्ग है।
२२४. मोत्तूण सयलजप्प-मणागय-सुहमसुह-वारणं किच्चा।
अप्पाणं जो झायदि, पच्चक्खाणं हवे तस्स ॥११॥ समस्त वाचनिक विकल्पों का त्याग करके तथा अनागत शुभाशुभ का निवारण करके जो आत्मा को ध्याता है, उसके प्रत्याख्यान होता है । (त्याग का संकल्प ही प्रत्याख्यान है।)
२२५. णियभावं ण वि मुच्चइ परभावं णेव गेहए केइं।
जाणदि पस्सदि सव्वं, सोऽहं इदि चिंतए णाणी ॥१२ ।। जो निज-भाव को नहीं छोड़ता और किसी भी पर-भाव को ग्रहण नहीं करता तथा जो सबका ज्ञाता-द्रष्टा है, वह परमतत्त्व 'मैं ही हूँ । आत्मध्यान में लीन ज्ञानी ऐसा चिन्तन करता है।
२२६. जं किंचि मे दुच्चरितं, सव्वं तिविहेण वोसिरे।
सामाइयं तु तिविहं, करेमि सव्वं णिरायारं ॥१३॥ वह विचार करता है कि जो कुछ भी मेरा दुश्चरित्र है, उस सबको मैं मनवचन-कायपूर्वक विसर्जित करता हूँ और निर्विकल्प होकर त्रिविध सामायिक करता हूँ।
आवश्यकसूत्र/४९