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२१७. उसहादिजिणवराणं, णामणिरुत्तिं गुणाणुकित्तिं च ।
काऊण अच्चिदूण य, तिसुद्धिपणामो थवो णेओ॥४॥ ऋषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों के नामों की निरुक्ति तथा उनके गुणों का कीर्तन करना, पूजा-अर्चना करना, मन-वचन-काया की शुद्धिपूर्वक प्रणाम करना 'चतुर्विंशति स्तव' नामक दूसरा आवश्यक है।
२१८. दव्वे खेत्ते काले, भावे य कयावराह-सोहणयं।
जिंदण-गरहण-जुत्तो, मणवचकायेण पडिक्कमणं ।।५।। निन्दा तथा गर्दा से युक्त, मन-वचन-काय के द्वारा, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के कृत अपराधों की शुद्धि करना प्रतिक्रमण कहलाता है।
२१९. आलोयणणिंदणगरह-णाहिं अब्भुट्टिओ अकरणाए।
तं भाव-पडिक्कमणं सेसं पुण दव्वदो भणिअं ॥६॥ आलोचना, निन्दा तथा गर्दा के द्वारा प्रतिक्रमण करने में तथा पुनः दोष न करने में उद्यत पुरुष के भाव-प्रतिक्रमण होता है । शेष सब तो (प्रतिक्रमण-पाठ आदि करना) द्रव्य-प्रतिक्रमण है।
२२०. इच्छाय अणुण्णवणा; अव्वावाहं यजत्त अवणाय।
अवराह-सामणा वि, व छट्ठाणा हुंति वंदण ए॥७॥ वन्दना के छह स्थान होते हैं-वंदन की इच्छा प्रकट करना, गुरु के मर्यादित स्थान में जाने की अनुज्ञा लेना, निर्विघ्न धर्म-साधना की इच्छा करना, संयम-यात्रा
और इंद्रिय-जय का अनुमोदन करना तथा प्रमादवश हुए आचरणों के लिए क्षमा-याचना करना।
२२१. विणओवयार माणस्स-मंजणा, पूजणा गुरुजणस्स।
तित्थयराणयः आणा-सुयधम्मा राहणा किरिया ॥८॥ वंदना करना उपचार नाम का विनय है। इससे अभिमान का विलय होता है, गुरुजनों की पूजा होती है, तीर्थंकरों की आज्ञा और श्रुतधर्म की आराधना होती है तथा इसका पारम्परिक फल अक्रिया-परम ध्यान होता है ।
जिनसूत्र/४८