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________________ सोने, यतनापूर्वक खाने और यतनापूर्वक बोलने से पाप-कर्म का बंध नहीं होता। २०१. फासुयमग्गेण दिवा, जुगंतरप्पेहिणा सकज्जेण। जंतुण परिहरंते-णिरियासमिदी हवे गमणं ॥९॥ कार्यवश दिन में प्रासुकमार्ग से (जिस मार्ग पर पहले से आवागमन शुरू हो चुका हो) चार हाथ भूमि को आगे देखते हुए, जीवों की विराधना बचाते हुए गमन करना ईर्या-समिति है । अर्थात् विवेकपूर्वक चलना ईर्या-समिति है। २०२. पेसुण्णहासकक्कस-परणिंदाप्पप्पसंसा-विकहादी। वज्जित्ता सपरहियं, भासासमिदी हवे कहणं ॥१०॥ पैशुन्य, हास्य, कर्कश-वचन, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, विकथा (स्त्री, राज आदि की विकारवर्धक कथा) का त्याग करके स्व-पर हितकारी वचन बोलना ही भाषा-समिति है । अर्थात् विवेकपूर्वक बोलना भाषा-समिति है। २०३. तहेव फरुसा भासा, गुरुभूओवघाइणी । सच्चा-वि सा न वत्तव्वा, जओ पावस्स आगमो ॥११॥ कठोर और प्राणियों का उपघात करने वाली, चोट पहुँचाने वाली भाषा न बोलें। ऐसा सत्य-वचन भी न बोलें जिससे पाप का बन्ध होता हो। २०४. णाणाजीवा णाणाकम्मं, णाणाविहं हवे लद्धी। तम्हा वयणविवादं, सगपरसमएहिं वज्जिज्जा ।।१२।। इस संसार में नाना प्रकार के जीव हैं, नाना प्रकार के कर्म हैं, नाना प्रकार की लब्धियाँ हैं, इसलिए कोई स्वधर्मी हो या परधर्मी, किसी के भी साथ वचन-विवाद करना उचित नहीं। २०५-६. जहा दुमस्स पुफ्फेसु, भमरो आवियइ रसं। ण य पुष्पं किलामेइ सो य पीणेइ अप्पयं ॥१३॥ एमेए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो। विहंगमा व पुप्फेसु, दाणभत्तेसणेरया ॥१४॥ जैसे भ्रमर पुष्पों को तनिक भी पीड़ा पहुँचाये बिना रस ग्रहण करता है और अपने को तृप्त करता है, वैसे ही लोक में विचरण करने वाले परिग्रह-मुक्त समिति-गुप्तिसूत्र/४५
SR No.002278
Book TitleJinsutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth
Publication Year2001
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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