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१९५. एयाओ पंच समिईओ, चरणस्स य पवत्तणे ।
गुत्ती नियत्तणे वत्ता, असुभत्येसु सव्वसो ॥ ३ ॥
ये पाँच समितियाँ चारित्र की प्रवृत्ति के लिए हैं और तीन गुप्तियाँ सभी अशुभ विषयों से निवृत्ति के लिए हैं।
१९६. मरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स णत्थि बंधो, हिंसामेत्तेण समिदीसु ॥४॥
जीव मरे या जीये, अयतनाचारी को हिंसा का दोष अवश्य लगता है । किन्तु जो समितियों में प्रयत्नशील है उससे बाह्य हिंसा हो जाने पर भी उसे कर्मबन्ध नहीं होता ।
१९७-८ आहच्च हिंसा समितस्स जा तू सा दव्वतो होति ण भावतो उ । भावेण हिंसा तु असंजतस्सा, जे वा वि सत्ते ण सदा वधेति ॥५ ॥ संपत्ति तस्सेव जदा भविज्जा, सा दव्वहिंसा खलु भावतो य । अज्झत्थसुद्धस्स जदा ण होज्जा, वघेण जोगो दुहतो वऽहिंसा ॥ ६ ॥ समिति का पालन करते हुए साधु से जो आकस्मिक हिंसा हो जाती है, वह केवल द्रव्य-हिंसा है, भाव-हिंसा नहीं । भाव-हिंसा तो असंयत से होती है ऐसे लोग जिन जीवों को कभी मारते नहीं, उनकी हिंसा का दोष भी इन्हें लगता है । किसी प्राणी का घात हो जाने पर जैसे असंयत व्यक्ति को द्रव्य तथा भाव दोनों प्रकार की हिंसा का दोष लगता है, वैसे ही चित्त-शुद्धि से युक्त समितिपरायण साधु द्वारा मनःपूर्वक किसी का घात न होने के कारण उन्हें द्रव्य तथा भाव दोनों प्रकार की अहिंसा होती है ।
१९९. जयणा उ धम्मजणणी, जयणा धम्मस्स पालणी चेव I
तव्वुड्डीकरी जयणा, एगंतसुहावहा जयणा ॥७ ॥ यतनाचारिता धर्म की जननी है । यतनाचारिता धर्म की पालनहार है यतनाचारिता धर्म को बढ़ाती है । यतनाचारिता एकान्त सुखावह है ।
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२००. जयं चरे जयं चिट्टे, जयमासे जयं सए ।
जयं भुजंतो भासतो, पावं कम्मं न बंधइ ॥८ ॥
यतना (विवेक) पूर्वक चलने, यतनापूर्वक रहने, यतनापूर्वक बैठने, यतनापूर्वक
जिनसूत्र / ४४