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________________ १९०. गामे वा णयरे वा, रण्णे वा पेच्छिऊण परमत्थं । जो मुंचदि गहणभावं, तिदियवदं होदि तस्सेव ।।४।। ग्राम, नगर अथवा अरण्य में दूसरे की वस्तु को देखकर उसे ग्रहण करने का भाव त्याग देने वाले के तीसरा अचौर्यव्रत होता है। १९१. मादुसुदाभगिणी विय, टुणित्थित्तियं य पडिरूवं । इत्थिकहादिणियत्ती, तिलोयपुज्जं हवे बंभं ॥५॥ वृद्धा, बालिका और युवती स्त्री के इन तीन प्रतिरूपों को देखकर उन्हें माता, पुत्री और बहन के समान मानना तथा स्त्री-कथा से निवृत्त होना चौथा ब्रह्मचर्य-व्रत है। यह ब्रह्मचर्य तीनों लोकों में पूज्य है । १९२. न सो परिग्गहो वुत्ते, नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा ॥६॥ ज्ञातपुत्र महावीर ने वस्तुगत परिग्रह को परिग्रह नहीं कहा है । उन महर्षि ने मूर्छा को ही परिग्रह कहा है। १९३. किं किंचणत्ति तक्कं, अपुणब्भव-कामिणोद देहे वि। संग त्ति जिणवरिंदा, णिप्पडि कम्मत्तमुट्ठिा ॥७।। जब जिनेश्वरदेव ने मोक्षाभिलाषी को 'शरीर भी परिग्रह है' कहकर देह की उपेक्षा करने का उपदेश दिया है, तब अन्य परिग्रह की तो बात ही क्या है। १९. समिति-गुप्तिसूत्र १९४. इरियाभासेसणाऽऽदाणे, उच्चारे समिई इय। मणगुत्ती वयगुत्ती, कायगुत्ती य अट्ठमा ॥१॥ ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और उच्चार-प्रस्रवण-ये पाँच समितियाँ (समिति = सम्यक् प्रवृत्ति) हैं । मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति—ये तीन गुप्तियाँ (गुप्ति = गोपन/नियंत्रण) हैं। समिति-गुप्तिसूत्र/४३
SR No.002278
Book TitleJinsutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth
Publication Year2001
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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