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ही जिनदेव गुण-दोषों का कारण कहते हैं। ..
१८५. भावविसुद्धिणिमित्तं, बाहिरगंथस्स कीरए चाओ।
बाहिरचाओ विहलो, अब्भंतरगंथजुत्तस्स ॥१२ ।। भावों की विशुद्धि के लिए ही बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है । जिसके भीतर परिग्रह की वासना है उसका बाह्य त्याग निष्फल है।
१८६. देहादिसंगरहिओ, माणकसाएहि सयलपरिचत्तो।
अप्पा अप्पम्मि रओ, स भावलिंगी हवे साहू ॥१३॥ जो देह आदि की ममता से रहित है, मान आदि कषायों से पूरी तरह मुक्त है तथा जो अपनी आत्मा में लीन है, वह साधु भावलिंगी है।
१८. व्रतसूत्र
१८७. अहिंसा सच्चं च अतेणगं च, तत्तो य बंभं अपरिग्गहं च।
पडिवज्जिया पंच महव्वयाणि, चरिज धम्मं जिणदेसियं विऊ ॥१॥ अहिंसा, सत्य, अस्तेय (अचौर्य), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन पाँच महाव्रतों को स्वीकार करके ज्ञानी पुरुष जिनोपदिष्ट धर्म का आचरण करे।
१८८. सव्वेसिमासमाणं, हिदयं गब्भो व सव्वसत्थाणं। .
सव्वेसिं वदगुणाणं, पिंडो सारो अहिंसा हु ॥२॥ अहिंसा सब आश्रमों का हृदय, सब शास्त्रों का रहस्य तथा सब व्रतों और गुणों का पिण्डभूत सार है।
१८९. अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया।
हिंसगं न मुसं बूया, नो वि अन्नं वयावए ।।३।। स्वयं अपने लिए या दूसरों के लिए क्रोध आदि या भय आदि के वश होकर हिंसात्मक असत्य वचन न तो स्वयं बोलना चाहिए और न दूसरों से बुलवाना
चाहिए। यह दूसरा सत्यव्रत है। जिनसूत्र/४२