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का चिन्तन करते रहने के कारण वे निद्रा के वश नहीं होते।
१७९. निम्ममो निरहंकारो, निस्संगो चत्तगारवो।
समो य सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु अ॥६॥ साधु ममत्वरहित, निरहंकारी, निस्संग, गौरव का त्यागी तथा त्रस और स्थावर जीवों के प्रति समदृष्टि रखता है।
१८०. लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा।
समो निंदापसंसासु, तहा माणावमाणओ ॥७॥ वह लाभ और अलाभ में, सुख और दुःख में, जीवन और मरण में, निंदा और प्रशंसा में तथा मान और अपमान में समभाव रखता है।
१८१. किं काहदि वणवासो, कायकलेसो विचित्त उववासो।
अज्झयणमोणपहुदी, समदारहियस्स समणस्स ॥८॥ समता-रहित श्रमण का वनवास, कायक्लेश, विविध उपवास,अध्ययन और मौन आदि व्यर्थ है।
१८२. बुद्धे परिनिव्बुडे चरे, गाम गए नगरे व संजए।
संतिमग्गं च बूहए, समयं गोयम! मा पमायए।।९।। प्रबुद्ध और उपशान्त होकर संयत भाव से ग्राम और नगर में विचरण कर । शान्ति का मार्ग बढ़ा । हे गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर ।
१८३. न हु जिणे अज्ज दिस्सई, बहुमए दिस्सई मग्गदेसिए।
संपइ नेयाउए पहे, समयं गोयम! मा पमायए ॥१०॥ भविष्य में लोग कहेंगे, आज 'जिन' दिखाई नहीं देते और जो मार्गदर्शक हैं वे भी एकमत के नहीं हैं। किन्तु आज तुझे न्यायपूर्ण मार्ग उपलब्ध है। अतः गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर ।
१८४. भावो हि पढमलिंगं, ण दव्वलिंगं च जाण परमत्थं ।
भावो कारणभूदो, गुणदोसाणं जिणा बिंति ॥११॥ भाव ही प्रथम या मुख्य लिंग है । द्रव्य लिंग परमार्थ नहीं है, क्योंकि भाव को
श्रमणधर्मसूत्र/४१