________________
श्रमण दाता को कष्ट दिये बिना उसके द्वारा दिया गया ग्राह्य आहार ग्रहण करते हैं । यही उनकी एषणा समिति है । अर्थात् विवेकपूर्वक आहार-चर्या करना
एषणा-समिति है। २०७. चक्खुसा पडिलेहित्ता, पमज्जेज्ज जयं जई ।
आइए निक्खिवेज्जा वा, दुहओवि समिए सया॥१५॥ यतना (विवेक) पूर्वक प्रवृत्ति करने वाला अपने दोनों प्रकार के उपकरणों को आँखों से देखकर तथा प्रमार्जन करके उठाये और रखे । यही आदान-निक्षेपण समिति है । अर्थात् किसी भी वस्तु को विवेकपूर्वक उठाना-रखना चाहिए।
२०८. एगते अच्चित्ते दूरे, गूढे विसालमविरोहे ।
उच्चारादिच्चाआ, पदिठावणिया हवे समिदी ॥१६॥ मल-मूत्र आदि का त्याग ऐसे स्थान पर करना चाहिए जहाँ एकान्त हो, हरित् वनस्पति से रहित हो, गाँव आदि से दूर हो, ओट में हो, विशाल-विस्तीर्ण हो, कोई विरोध न करता हो । यह प्रतिष्ठापनिका या उत्सर्ग समिति है । अर्थात् विवेकपूर्वक मल-मूत्र का त्याग करना चाहिए।
२०९. संरंभ-समारंभे, आरंभे य तहेव य।
मणं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज्ज जयं जई ॥१७॥ यतनासम्पन्न यति (साधक) संरम्भ, समारम्भ व आरम्भ (हिंसायुक्त प्रवृति) में प्रवर्तमान मन को रोके—उसका गोपन करे । यह मनोगुप्ति है।
२१०. संरंभसमारंभे, आरंभे य तहेव य।
वयं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज्ज जयं जई ॥१८॥ यतनासम्पन्न यति संरम्भ, समारम्भ व आरम्भ में प्रवर्त्तमान वचन को रोके—उसका गोपन करे । यह वचनगुप्ति है।
२११. संरंभसमारंभे, आरंभम्मि तहेव य ।
कायं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज्ज जयं जई ॥१९॥ यतनासम्पन्न यति संरम्भ, समारम्भ व आरम्भ में प्रवर्त्तमान काया को
रोके—उसका गोपन करे । यह कायगुप्ति है अर्थात् मन, वचन और काया के जिनसूत्र/४६