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आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जानने वाला तथा परकीय भावों को जानने वाला ऐसा कौन ज्ञानी होगा, जो यह कहेगा कि 'यह मेरा है।'
१०८. अहमिक्को खलु सुद्धो, णिम्ममओ णाणदंसणसमग्गो।
तम्हि ठिओ तच्चित्तो, सब्वे एए खयं णेमि ॥८॥ मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, ममतारहित तथा ज्ञानदर्शन से परिपूर्ण हूँ। अपने इस शुद्ध स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर मैं इन सब परकीय भावों का क्षय करता हूँ।
११. मोक्षमार्गसूत्र १०९. मग्गो मग्गफलं ति य, दुविहं जिणसासणे समक्खादं ।
मग्गो खलु सम्मत्तं मग्गफलं होइ णिव्वाणं ॥१॥ जिनशासन में 'मार्ग' तथा 'मार्गफल' इन दो प्रकारों से कथन किया गया है। 'मार्ग' 'मोक्ष' का उपाय है । उसका 'फल' 'निर्वाण' या 'मोक्ष' है।
११०. दंसणणाणचरित्ताणि, मोक्खमग्गो त्ति सेविदव्वाणि।
साधूहि इदं भणिदं तेहिं दु बंधो व मोक्खो वा ।।२।। दर्शन, ज्ञान, चारित्र मोक्ष का मार्ग है । साधुओं को इनका आचरण करना चाहिए। यदि वे स्वाश्रित होते हैं तो इनसे मोक्ष होता है और पराश्रित होने से बन्ध ।
१११. सद्दहदि य पत्तेदि य, रोचेदि य तह पुणो य फासेदि।
धमं भोगणिमित्तं, ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं ॥३॥ अभव्य जीव यद्यपि धर्म में श्रद्धा रखता है, उसकी प्रतीति करता है, उसमें रुचि रखता है, उसका पालन भी करता है, किन्तु यह सब वह धर्म को भोग का निमित्त समझकर करता है, कर्मक्षय का कारण समझकर नहीं।
११२. सुहपरिणामो पुण्णं, असुहो पाव त्ति भणियमन्नेसु।
परिणामो णन्नगदो, दुक्खक्खयकारणं समये ॥४॥ (वह नहीं जानता कि) परद्रव्य में प्रवृत्त शुभ-परिणाम पुण्य है और
अशुभ-परिणाम पाप है। धर्म अनन्यगत अर्थात् स्व-द्रव्य में प्रवृत्त परिणाम है जिनसूत्र/२८