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________________ जो यथासमय दुःखों के क्षय का कारण होता है। ११३. पुण्णं पि जो समिच्छदि संसारो तेण ईहिदो होदि। पुण्णं सुगईहेहूँ, पुण्णखएणेव णिव्वाणं ॥५॥ जो पुण्य की इच्छा करता है, वह संसार की ही इच्छा करता है । पुण्य सुगति का हेतु है, किन्तु निर्वाण तो पुण्य के क्षय से ही होता है। ११४. कम्ममसुहं कुसीलं, सुहकम्मं चावि जाण व सुसीलं। कह तं होदि सुसीलं, जं संसारं पवेसेदि ॥६॥ अशुभ-कर्म को कुशील और शुभ-कर्म को सुशील जानो । किन्तु उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है जो संसार में प्रविष्ट कराता है ? ११५. सोवणियं पि णियलं, बंधदि कालायसं पिजह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं, सुहमसुहं वा कदं कम्मं ॥७॥ बेड़ी सोने की हो चाहे लोहे की, पुरुष को दोनों ही बेड़ियाँ बाँधती हैं । इसी प्रकार जीव को उसके शुभ-अशुभ कर्म बाँधते हैं। ११६. तम्हा दु कुसीलेहिं य, रायं मा कुणह मा व संसग्गं । साहीणो हि विणासो, कुसीलसंसग्गरायेण ॥८॥ अतः परमार्थतः दोनों ही प्रकार के कर्मों को कुशील जानकर उनके साथ न राग करना चाहिए और न उनका संसर्ग । क्योंकि कुशील कर्मों के प्रति राग और संसर्ग करने से स्वाधीनता नष्ट होती है। ११७. वरं वयतवेहि सग्गो, मा दुक्खं होउ णिरइ इयरेहि। छायातवट्ठियाणं, पडिवालंताण गुरुभेयं ॥९॥ (तथापि) व्रत व तपादि के द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति उत्तम है। इनके न करने पर नरकादि के दुःख उठाना ठीक नहीं है । क्योंकि कष्ट सहते हुए धूप में खड़े रहने की अपेक्षा छाया में खड़े रहना कहीं ज्यादा अच्छा है। ११८. खयरामरमणुय-करंजलि-मालाहिं च संथुया विउला। चक्कहररायलच्छी, लब्भई बोही ण भव्वणुआ ॥१०॥ मोक्षमार्गसूत्र/२९
SR No.002278
Book TitleJinsutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth
Publication Year2001
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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