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जीव (आत्मा) तीन प्रकार का है—बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । परमात्मा के दो प्रकार हैं-अर्हत् और सिद्ध ।
१०२. आरुहवि अंतरप्पा, बहिरप्पो छंडिऊण तिविहेण ।
झाइज्जइ परमप्पा, उवइटुं जिणवरिंदेहिं ॥२॥ जिनेश्वरदेव का कथन है कि तुम मन, वचन और काया से बहिरात्मा को छोड़कर, अन्तरात्मा में आरोहण कर परमात्मा का ध्यान करो।
१०३.
णिइंडो णिबंदो, णिम्ममो णिक्कलो णिरालंबो। णीरागो णिद्दोसो, णिम्मूढो णिब्भयो अप्पा ॥३॥ आत्मा वचन-वचन-कायरूप त्रिदंड से रहित, निर्द्वन्द्व, निर्मम ममत्वरहित, निष्कल-शरीररहित, निरालम्ब, रागरहित, निर्दोष, मोहरहित तथा निर्भय है।
१०४. णिग्गंथो णीरागो, णिस्सल्लो सयलदोसणिम्मुम्को।
णिक्कामो णिक्कोहो, णिम्माणो णिम्मदो अप्पा ।।४।। वह आत्मा निर्ग्रन्थ—ग्रन्थिरहित, नीराग, निःशल्य सर्व दोष मुक्त, निष्काम, निष्क्रोध, निर्मान तथा निर्मद है।
१०५. णवि होदि अप्पमत्तो, ण पमत्तो जाणओ दुजो भावो।
एवं भणंति सुद्धं णाओ जो सो उ सो चेव ॥५॥ आत्मा ज्ञायक है । जो ज्ञायक होता है, वह न अप्रमत्त होता है और न प्रमत्त । जो अप्रमत्त और प्रमत्त नहीं होता वह शुद्ध होता है । आत्मा ज्ञायकरूप में ज्ञात है और वह शुद्ध अर्थ में ज्ञायक ही है । उसमें ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है ।
१०६. णाहं देहो ण मणो, ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं।
कत्ता ण ण कारयिदा, अणुमंता णेव कत्तीणं ॥६॥ मैं (आत्मा) न शरीर हूँ, न मन हूँ, न वाणी हूँ और न उनका कारण हूँ । मैं न कर्ता हूँ, न कराने वाला हूँ और न कर्ता का अनुमोदक ही हूँ।
१०७. को णाम भणिज्ज बुहो, गाउं सव्वे पराइए भावे।
मज्झमिणं ति य वयणं, जाणतो अप्पयं सुद्धं ॥७ ।।
आत्मसूत्र/२७