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________________ ९६. न कम्मुणा कम्म खवेंति बाला, अकम्मुणा कम्म खवेंति धीरा। मेधाविणो लोभमया वतीता, संतोसिणो नो पकरेंति पावं ॥५॥ अज्ञानी साधक कर्म के द्वारा कर्म का क्षय नहीं कर सकते । धीर-पुरुष अकर्म (संयम) के द्वारा कर्म का क्षय करते हैं । मेधावी पुरुष लोभ और मद से अतीत तथा सन्तोषी होकर पाप नहीं करते। ९७. सव्वओ पमत्तस्स भयं, सव्वओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं ॥६॥ प्रमत्त को सब ओर से भय होता है । अप्रमत्त को कोई भय नहीं होता। नाऽऽलस्सेण समं सुक्खं, न विज्जा सह निद्दया। न वेरग्गं ममत्तेणं, नारंभेण दयालुया ॥७॥ आलसी सुखी नहीं हो सकता, निद्रालु विद्याभ्यासी नहीं हो सकता, ममत्व रखने वाला वैराग्यवान नहीं हो सकता और हिंसक दयालु नहीं हो सकता। ९९. जागरह नरा! णिच्चं, जागरमाणस्स वङ्गते बुद्धी। जो सुवति ण सो धन्नो, जो जग्गति सो सया धन्नो ।।८।। अतः मनुष्यो ! सतत जागृत रहो । जो जागता है उसकी बुद्धि बढ़ती है । जो सोता है वह धन्य नहीं है; धन्य वह है, जो सदा जागता है। १००. आदाणे णिक्खेवे, वोसिरणे ठाणगमणसयणेसु। सव्वत्थ अप्पमत्तो, दयावरो होदु हु अहिंसओ ॥९॥ वस्तुओं को उठाने-रखने में, मल-मूत्र का त्याग करने में, बैठने तथा चलने-फिरने में, और शयन करने में जो दयालु पुरुष सदा अप्रमादी अर्थात् विवेकशील रहता है, वह निश्चय ही अहिंसक है। १०. आत्मसूत्र १०१. जीवा हंवति तिविहा, बहिरप्या तह य अंतरप्या य । तच्वाण परं तच्चं, जीवं जाणेह णिच्छयदो ॥१॥ जिनसूत्र/२६
SR No.002278
Book TitleJinsutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth
Publication Year2001
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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