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में चित्त का समाधान पाने वाला भिक्षु धर्म के आराम में विचरण करे ।
९१. सव्वगंथविमुक्को, सीईभूओ पसंतचित्तो ।
जं पावइ मुत्तिसुहूं, न चक्कवट्टी वितं लहइ ॥१६ ।। सम्पूर्ण ग्रन्थियों से मुक्त, शीतीभूत और प्रसन्नचित्त व्यक्ति जैसा मुक्तिसुख पाता है वैसा सुख चक्रवर्ती को भी नहीं मिलता।
९. अप्रमादसूत्र ९२. सीतंति सुवंताणं, अत्था पुरिसाण लोगसारत्था।
तम्हा जागरमाणा, विधुणध पोराणयं कम्मं ॥१॥ जो पुरुष सोते हैं उनके जगत् में सारभूत अर्थ नष्ट हो जाते हैं। अतः सतत आत्म-जागृत रहकर पूर्वार्जित कर्मों को नष्ट करो।
९३.
जागरिया धम्मीणं, अहम्मीणं च सुत्तया सेया। वच्छाहिवभगिणीए, अकहिंसु जिणो जयंतीए॥२॥ 'धार्मिकों का जागना श्रेयस्कर है और अधार्मिकों का सोना'-ऐसा भगवान् महावीर ने वत्सदेश के राजा शतानीक की बहन जयन्ती से कहा था।
९४. सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी, न वीससे पण्डिए आसुपण्णे।
घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, भारंड-पक्खी व चरेऽप्पमत्तो ॥३॥ आशुप्रज्ञ पंडित सोये हुए व्यक्तियों के बीच भी जागृत रहे । प्रमाद में विश्वास न करे । मुहूर्त घोर निर्दयी होते हैं। शरीर दुर्बल है, इसलिए वह भारण्ड पक्षी की भाँति अप्रमत्त होकर विचरण करे ।
९५. पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहाऽवरं ।
तब्भावादेसओ वावि, बालं पंडियमेव वा ॥४॥ प्रमाद को कर्म कहा है और प्रमाद को अकर्म । प्रमाद के होने से मनुष्य बाल होता है, प्रमाद के न होने से पंडित।
अप्रमादसूत्र/२५