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७३. अत्ता चेव अहिंसा, अत्ता हिंसति णिच्छओ समए।
जो होदि अप्पमत्तो, अहिंसगो हिंसगो इदरो ॥९॥ आत्मा ही अहिंसा है और आत्मा ही हिंसा है—यह सिद्धान्त का निश्चय है। जो अप्रमत्त है वह अहिंसक है और जो प्रमत्त है वह हिंसक है।
७४.
तुंगं न मंदराओ, आगासाओ विसालयं नत्थि । जह तह जंयमि जाणसु, धम्ममहिंसासमं नत्थि ॥१०॥ जैसे जगत् में मेरु-पर्वत से ऊँचा और आकाश से विशाल और कुछ नहीं है, वैसे ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है ।
७५. अभयं पत्थिवा! तब्भं, अभयदाया भवाहिय।
अणिच्चे जीवलोगम्मि, किं हिंसाए पसज्जसि ।।११।। पार्थव ! तुझे अभय है और तू भी अभयदाता बन । इस अनित्य जीव-लोक में तू क्यों हिंसा में आसक्त हो रहा है?
७६. जंइच्छसि अप्पणतो, जंच ण इच्छसि अप्पणतो।
तं इच्छ परस्स वि या, एत्तियगं जिणसासणं ।।१२।। जो तुम अपने लिए चाहते हो, वही दूसरों के लिए भी चाहो । जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, वह दूसरों के लिए भी मत चाहो । यही जिनशासन है-तीर्थंकर का उपदेश है।
८. संयमसूत्र ७७. अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली।
अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नंदणं वणं ।।१।। आत्मा ही वैतरणी नदी है । आत्मा ही कूटशाल्मली वृक्ष है । आत्मा ही कामदुहा धेनु है और आत्मा ही नन्दनवन है।
७८. अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य।
अप्पा मित्तममित्तं च, दुष्पट्ठिय सुप्पट्टिओ॥२॥
आत्मा ही सुख-दुःख का कर्ता और विकर्ता (भोक्ता) है। सत्प्रवृत्ति में स्थित जिनसूत्र/२२