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जैसे तुम्हें दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही सब जीवों को दुःख प्रिय नहीं है - ऐसा जानकर, पूर्ण आदर और सावधानीपूर्वक, आत्मौपम्य की दृष्टि से सब पर दया करो ।
६८. जीववहो अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ।
ता सव्वजीवहिंसा, परिचत्ता अत्तकामेहिं ॥४ ॥
जीव का वध अपना ही वध हैं । जीव की दया अपनी ही दया है । अतः आत्महितैषी पुरुषों ने सभी तरह की जीव हिंसा का परित्याग किया है ।
६९. तुमं सि नाम स चेव, जं हंतव्वं ति मन्नसि । तुमं सि नाम स चेव, जं अज्जावेयव्वं ति मन्नसि ॥५ ॥
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जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है । जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह भी तू ही है ।
७०. रागादीणमणुप्पाओ, अहिंसकत्तं त्ति देसियं समए । तेसिं चे उप्पत्ती, हिंसेत्ति जिणेहि णिद्दिट्ठा ॥ ६ ॥
७२.
जिनेश्वरदेव ने कहा है- राग आदि की उत्पत्ति न होना अहिंसा है और उनकी उत्पत्ति होना हिंसा ।
७१. अज्झवसिएण बंधो, सत्ते मारेज्ज मा थ मारेज्ज ।
एसो बंधसमासो, जीवाणं णिच्छयणयस्स ॥७ ॥
हिंसा करने के अध्यवसाय (विचार या भाव) से ही कर्म का बंध होता है, फिर कोई जीव मरे या न मरे । निश्चयनय के अनुसार संक्षेप में जीवों के कर्म-बंध का यही स्वरूप है ।
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हिंसादो अविरमणं, वह परिणामो य होइ हिंसा हु । तम्हा पमत्तजोगो, पाणव्ववरोवओ णिच्चं ॥८ ॥
हिंसा से विरत न होना और हिंसा का परिणाम रखना हिंसा ही है । इसलिए प्रमाद का योग नित्य-प्राणघातक है ।
अहिंसासूत्र/२१