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आत्मा ही अपना मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना शत्रु है ।
७९. एगप्पा अजिए सत्तू, कसाया इंदियाणि य । ते जिणित्तु जहानायं, विहरामि अहं मुणी ! ॥ ३
८१.
अविजित एक अपनी आत्मा ही शत्रु है । अविजित कषाय और इन्द्रियाँ शत्रु हैं । मुने ! मैं उन्हें जीतकर यथान्याय विचरण करता हूँ ।
८०. जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे । एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ ॥४ ॥
जो दुर्जेय संग्राम में हजारों-हजार योद्धाओं को जीतता है, उसकी अपेक्षा जो एक अपने को जीतता है, उसकी विजय परमविजय है ।
अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो। अप्पा दंतो सही होइ, अस्सि लोए परत्थ य ॥६ ॥
स्वयं पर ही विजय प्राप्त करना चाहिए। अपने पर विजय प्राप्त करना ही कठिन है । आत्म-विजेता ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है ।
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८२. वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य ।
माऽहं परेहिं दम्मंतो, बंधणेहिं वहेहि य ॥७ ॥
उचित यही है कि मैं स्वयं ही संयम और तप के द्वारा अपने पर विजय प्राप्त करूँ । बन्धन और वध के द्वारा दूसरों से मैं दमित- प्रताड़ित किया जाऊँ, यह उचित नहीं है ।
८३. एगओ विरईं कुज्जा, एगओ य पवत्तणं ।
असंजमे नियतिं च, संजमे य पवत्तणं ॥८ ॥
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एक ओर से निवृत्ति और दूसरी ओर से प्रवृत्ति करनी चाहिए - असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति ।
८४. रागे दोसे य दो पावे, पावकम्म पवतणे ।
जे भिक्खू भई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥ ९ ॥
राग और द्वेष—ये दो पाप पापकर्म के प्रवर्तक हैं। जो सदा इनका निरोध करता
संयमसूत्र / २३