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________________ ५०. पत्थं हिदयाणिटुं पि, भण्णमाणस्स सगणवासिस्स। कडुगं व ओसहं तं, महुरविवायं हवइ तस्स ॥८॥ अपने गणवासी (साथी) द्वारा कही हुई हितकर बात, भले ही वह मन को प्रिय न लगे, पर कटुक औषध की भाँति परिणाम में मधुर ही होती है । ५१. विस्ससणिज्जो माया व, होइ पुज्जो गुरु ब्व लोअस्स। सयणु व्व सच्चवाई, पुरिसो सव्वस्स होइ पिओ॥९॥ सत्यवादी मनुष्य माता की तरह विश्वसनीय, जनता के लिए गुरु की तरह पूज्य और स्वजन की भाँति सबको प्रिय होता है। ५२. सच्चम्मि वसदि तवो, सच्चम्मि संजमो तह वसे सेसा वि गुणा। सच्चं णिबंधणं हि य, गुणाणमुदधीव मच्छाणं ॥१०॥ सत्य में तप, संयम और शेष समस्त गुणों का वास होता है । जैसे समुद्र मत्स्यों का कारण (उत्पत्ति-स्थान) है, वैसे ही सत्य समस्त गुणों का कारण है। ५३. जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्डुई। दोमासकयं कज्जं, कोडीए विन निट्ठियं ॥११॥ जैसे-जैसे लाभ होता है, वैसे-वैसे लोभ होता है। लाभ से लोभ बढ़ता है। दो माशा सोने से निष्पन्न होने वाला कार्य तृष्णा के कारण करोड़ों स्वर्ण-मुद्राओं से भी पूरा नहीं होता। ५४. सुवण्णरुप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया। नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि, इच्छा हु आगाससमा अणंतिया ।।१२।। कदाचित् सोने और चाँदी के कैलास के समान असंख्य पर्वत हो जायें, तो भी लोभी पुरुष को उनसे तृप्ति नहीं होती, क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त ५५. समसंतोसजलेणं, जो धोवदि तिव्व-लोहमल-पुंज। भोयण-गिद्धि-विहीणो, तस्स सउच्चं हवे विमलं ॥१३॥ जो समता और सन्तोष रूपी जल से तीव्र लोभ रूपी मल-समूह को धोता है और जिसमें भोजन-लिप्सा नहीं है, उसके विमल शौचधर्म होता है। जिनसूत्र/१८
SR No.002278
Book TitleJinsutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth
Publication Year2001
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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