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४४. उत्तमखममद्दवज्जव-सच्चसउच्चं च संजमं चेव।
तवचागमकिंचण्हं, बम्ह इदि दसविहो धम्मो ॥२॥ उत्तम क्षमा, मार्दव (मृदुता), आर्जव (सरलता), सत्य, शौच (पवित्रता), संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य (अपरिग्रह) तथा ब्रह्मचर्य-ये दस धर्म हैं।
४५.
खामेमि सव्वजीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मझंण केण वि ॥३॥ मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ। सब जीव मुझे क्षमा करें । मेरा सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव है । मेरा किसी से भी वैर नहीं है।
जइ किंचि पमाएणं, न सुटु भे वट्टियं मए पुदि। तं मे खामेमि अहं निस्सल्लो निक्कसाओ अ॥४॥ किंचित् प्रमादवश यदि मेरे द्वारा आपके प्रति उचित व्यवहार नहीं किया गया हो तो मैं निःशल्य और कषाय-रहित होकर आपसे क्षमा-याचना करता हूँ। (यह क्षमा-धर्म है।)
४७. कुलरूवजादिबुद्धिसु, तवसुदसीलेसु गारवं किंचि।
जो णवि कुव्वदि समणो, मद्दवधम्मं हवे तस्स ।।५।। जो कुल, रूप, जाति, ज्ञान, तप, श्रुत और शील का किंचित् भी गर्व नहीं करता, उसके मार्दव-धर्म होता है। .
४८. जो चिंतेइ ण वंकं, ण कुणदि वंकं ण जंपदे वंकं ।
ण य गोवदि णियदोसं, अज्जव-धम्मो हवे तस्स ॥६॥ जो कुटिल विचार नहीं करता, कुटिल कार्य नहीं करता, कुटिल वचन नहीं बोलता और अपने दोषों को नहीं छिपाता, उसके आर्जव-धर्म होता है।
४९. परतावयकारण-वयणं, मोत्तूण सपरहिदवयणं ।
जो वददि भिक्खु तुरियो, तस्स दु धम्मो हवे सच्चं ।।७।। जो दूसरों को सन्ताप पहुँचाने वाले वचनों का त्याग करके स्व-पर-हितकारी वचन बोलता है, उसके सत्य-धर्म होता है।
धर्मसूत्र/१७