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________________ ३९. जेण विरागो जायइ तं तं सव्वायरेण करणिज्ज। मुच्चइ हु ससंवेगी, अणंतवो होइ असंवेगी ।।६।। जिससे विराग उत्पन्न होता है, उसका आदरपूर्वक आचरण करना चाहिए। विरक्त व्यक्ति संसार-बन्धन से छूट जाता है और आसक्त व्यक्ति का संसार अनन्त होता जाता है। . ४०. एवं ससंकप्पविकप्पणासुं, संजायई समयमुवट्ठियस्स। अत्थे य संकप्पयओ तओ से, पहीयए कामगुणेसु तण्हा ।।७।। 'राग-द्वेषमूलक संकल्प-विकल्प ही सब दोषों के मूल हैं, इन्द्रिय-विषय नहीं'–जो इस प्रकार का संकल्प करता है, उसके मन में समता उत्पन्न होती है । उससे उसकी काम-गुणों में होने वाली तृष्णा क्षीण हो जाती है। ४१. भावे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमझे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणी-पलासं ॥८॥ भाव से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है । जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह संसार में रहकर भी दुःखों की परम्परा से लिप्त नहीं होता। ४२. समिक्ख पंडिए तम्हा, पासजाइपहे बहू। अप्पणा सच्चमेसेज्जा, मेत्तिं भूएसु कप्पए ।।९॥ इसलिए ज्ञानी अनेकविध पाश या बन्धनों की, जो कि जन्म-मरण के कारण हैं, समीक्षा करके स्वयं सत्य की खोज करे और सब प्राणियों के प्रति मैत्री-भाव रखें। ६. धर्मसूत्र ४३. धम्मो मंगलमुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥१॥ धर्म उत्कृष्ट मंगल है । अहिंसा, संयम और तप उसके लक्षण हैं । जिसका मन सदा धर्म में रमा रहता है, उसे देव भी नमस्कार करते हैं। जिनसूत्र/१६
SR No.002278
Book TitleJinsutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth
Publication Year2001
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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