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________________ ५६. वय-समिदि-कसायाणं, दंडाणं तह इंदियाणं पंचण्हं । धारण-पालण-णिग्गह-चाय-जओ संजमो भणिओ ॥१४॥ व्रत-धारण, समिति-पालन अर्थात् सम्यक् प्रवृत्ति, कषाय-निग्रह, मन-वचन-काया की प्रवृत्तिरूप दण्ड अर्थात् हिंसा का त्याग और पंचेन्द्रिय-जय-इन सबको संयम कहा जाता है। ५७. विसयकसाय-विणिग्गहभावं, काऊण झाणसज्झाए। जो भावइ अप्पाणं, तस्स तवं होदि णियमेण ॥१५॥ इन्द्रिय-विषयों तथा कषायों का निग्रह कर ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा जो आत्मा को भावित करता है, उसके तपधर्म होता है। जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्ठि कुव्वइ । साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चई ॥१६॥ त्यागी वही कहलाता है, जो कान्त और प्रिय भोग उपलब्ध होने पर उनकी ओर से पीठ फेर लेता है और स्वाधीनतापूर्वक भोगों का त्याग करता है। अहमिक्को खलु सुद्धो, दंसणणाणमइओ सदाऽरूवी। ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि, अण्णं परमाणुमित्तं पि ॥१७ ।। मैं एक, शुद्ध, दर्शन-ज्ञानमय, नित्य और अरूपी हूँ । इसके अतिरिक्त अन्य परमाणु मात्र भी वस्तु मेरी नहीं है । यह आकिंचन्य-धर्म है। ६०. जीवो बंभ जीवम्मि, चेव चरिया हविज जा जदिणो। तं जाण बंभचेरं, विमुक्क परदेहतित्तिस्स ॥१८॥ जीव ही ब्रह्म है । देहासक्ति से मुक्त व्यक्ति की ब्रह्म के लिए जो चर्या है, वही ब्रह्मचर्य है। जहा पोम्मं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा। एवं अलित्तं कामेहि, तं वयं बूम माहणं ॥१८॥ जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार काम-भोग के वातावरण में उत्पन्न हुआ जो मनुष्य उससे लिप्त नहीं होता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। धर्मसूत्र/१९
SR No.002278
Book TitleJinsutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth
Publication Year2001
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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