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________________ ४. कर्मसूत्र २२. जं जं समयं जीवो, आविसइ जेण जेण भावेण । सो तंमि तंमि समए, सुहासुहं बंधए कम्मं ॥१॥ जिस समय जीव जैसे भाव करता है, वह उस समय वैसे ही शुभ-अशुभ कर्मों का बन्ध करता है। २३. न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा। एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाइ कम्म ॥२॥ जाति, मित्र-वर्ग, पुत्र और बान्धव उसका दुःख नहीं बँटा सकते । वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता है । क्योंकि कर्म कर्ता का अनुगमन करता है । २४. कम्मं चिणंति सवसा, तस्सुदयम्मि उ परव्वसा होति। रुक्खं दुरुहइ सवसो, विगलइ स परव्वसो तत्तो ॥३॥ जीव कर्म बाँधने में स्वतंत्र है, परन्तु उस कर्म का उदय होने पर भोगने में उसके अधीन हो जाता है । जैसे कोई पुरुष स्वेच्छा से वृक्ष पर तो चढ़ जाता है, किन्तु प्रमादवश नीचे गिरते समय परवश हो जाता है। कम्मवसा खलु जीवा, जीववसाइं कहिंचि कम्माई। कत्थइ धणिओ बलवं, धारणिओ कत्थई बलवं ॥४॥ कहीं जीव कर्म के अधीन होते हैं तो कहीं कर्म जीव के अधीन होते हैं । जैसे कहीं ऋण देते समय तो धनी बलवान् होता है तो कहीं ऋण लौटाते समय कर्जदार बलवान् होता है। २६. कम्मं पुण्णं पावं, हेऊ तेसिं च होंति सच्छिदरा । मंदकसाया सच्छा, तिव्वकसाया असच्छा हु ॥५॥ कर्म दो प्रकार का है—पुण्यरूप और पापरूप । पुण्यकर्म के बन्ध का हेतु स्वच्छ या शुभभाव है और पाप कर्म के बन्ध का हेतु अस्वच्छ या अशुभ भाव है। मन्दकषायी जीव शुभ भाव वाले होते हैं तथा तीव्र कषायी जीव अशुभ भाव वाले। कर्मसूत्र/१३
SR No.002278
Book TitleJinsutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth
Publication Year2001
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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