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जीव जन्म, जरा (बुढ़ापा) और मरण से होने वाले दुःख को जानता है, उसका विचार भी करता है, किन्तु विषयों से विरक्त नहीं हो पाता । अहो ! माया की गाँठ कितनी सुदृढ़ होती है ।
१७. जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य ।
अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जंतवो ॥ ६ ॥
जन्म दुःख है, जरा दुःख है, रोग और मृत्यु दुःख है । अहो ! संसार दुःख ही है, जिसमें जीव क्लेश पा रहे हैं ।
३. मिथ्यात्वसूत्र
१८. हा ! जह मोहियमइणा, सुग्गइमग्गं अजाणमाणेणं ।
भीमे भवकंतारे, सुचिरं भमियं भयकरम्मि ॥१॥
हा ! खेद है कि सुगति का मार्ग न जानने के कारण मैं मूढमति भयानक तथा घोर भव-वन में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा ।
१९. मिच्छत्तं वेदंतो जीवो, विवरीयदंसणो होइ । णय धम्मं रोचेदि हु, महुरं पि रसं जहा जरिदो ॥ २ ॥
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जो जीव मिथ्यात्व से ग्रस्त होता है उसकी दृष्टि विपरीत हो जाती है । उसे धर्म भी रुचिकर नहीं लगता, जैसे ज्वरग्रस्त मनुष्य को मीठा रस भी अच्छा नहीं
लगता ।
२०. मिच्छत्तपरिणदप्पा, तिव्वकसाएण सुट्ठ आविट्ठो ।
जीवं देहं एक्कं मण्णंतो होदि बहिरप्पा ॥ ३ ॥ मिथ्यात्वग्रस्त जीव तीव्र कषाय से आविष्ट होकर जीव और शरीर को एक मानता है । वह बहिरात्मा है ।
२१. जो जहवायं न कुण, मिच्छादिट्ठी तओ हु को अन्ना । वड्डड् य मिच्छत्तं परस्स संकं जणेमाणो ॥४॥
जो तत्त्व- विचार के अनुसार नहीं चलता, उससे बड़ा मिथ्यादृष्टि दूसरा कौन हो सकता है ? वह दूसरों को शंकाशील बनाकर अपने मिथ्यात्व को बढ़ाता रहता है ।
जिनसूत्र / १२