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________________ २७. रागद्दोसपमत्तो, इंदियवसओ करेइ कम्माई । आसवदारेहिं अवि-गुहेहिं तिविहेण करणेणं ॥ ६ ॥ राग-द्वेष से प्रमत्त बना जीव इन्द्रियाधीन होता है । उसके आस्रवद्वार (कर्मद्वार) बराबर खुले रहने के कारण मन-वचन-काया के द्वारा निरन्तर कर्म करता रहता है 1 २८. आसवदारेहिं सया, हिंसाईएहिं कम्ममासवइ । जह नावाइ विणासो, छिद्देहिं जलं उयहिमज्ये ॥७ ॥ हिंसा आदि आस्रवद्वारों से सदा कर्मों का आस्रव (आगमन) होता रहता है, जैसे कि समुद्र में जल के आने से छिद्र - युक्त नौका डूब जाती है । २९. रुंधियछिद्दसहस्से, जलजाणे जह जलं तु णासवदि । मिच्छत्ताइ - अभावे, तह जीवे संवरो होइ ॥८ ॥ जैसे जलयान के हजारों छेद बन्द कर देने पर उसमें पानी प्रवेश नहीं करता, वैसे ही मिथ्यात्व आदि के दूर हो जाने पर जीव में संवर (कर्म-निरोध) होता है । ३०. सव्वभूयऽप्पभूयस्स, सम्मं भूयाइं पासओ । पिहियासवस्स दंतस्स, पावं कम्पं न बंधई ॥ ९ ॥ जो समस्त प्राणियों को आत्मवत् देखता है और जिसने कर्मास्रव के सारे द्वार बन्द कर दिये हैं, उस संयमी को पापकर्म का बन्ध नहीं होता । ३१. सेणावम्मि णिहए, जहा सेणा पणस्सई । एवं कम्माणि णस्संति, मोहणिज्जे खयं गए ॥ १० ॥ जैसे सेनापति के मारे जाने पर सेना नष्ट हो जाती है, वैसे ही एक मोहनीय कर्म के क्षय होने पर समस्त कर्म सहज ही नष्ट हो जाते हैं । ३२-३३. नाणस्सावरणिज्जं दंसणावरणं तहा | वेयणिज्जं तहा मोहं, आउकम्मं तहेव य ॥ ११ ॥ नामकम्मं च गोयं च, अंतरायं तहेव य । एवमेयाई कम्माई, अद्वेव समासओ ॥ १२ ॥ जिनसूत्र / १४
SR No.002278
Book TitleJinsutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth
Publication Year2001
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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