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देवकाण्डः २ ]
'मणिप्रभा' व्याख्योपेतः
उपराग
१ राहुप्रासोऽर्केद्रोह २ उपलिङ्ग त्वरिष्टं स्यादुपसर्ग जन्यमीतिरुत्पातो ३ वह्नय त्पात ४ स्यात्कालः समयो दिष्टानेहसौ ५. कालो
उपप्लवः ।
उपद्रवः ॥ ३६ ॥ उपाहितः । सर्वमूपकः ॥ ४० ॥
द्विविधोऽवसर्पिण्युत्सर्पिण | विभेदतः । सागरकोटिकोटीनां विंशत्या स समाप्यते ॥। ४१ ।।
६ अवसर्पिण्यां पडरा उत्सर्पिण्यां त एव विपरीताः । द्वादशभिररैर्विवर्तते कालचक्रमिदम् ॥ ४२ ॥
एवं
३५
१. 'सूर्यग्रहण तथा चन्द्रग्रहण के ३ नाम हैं- राहुग्रासः, उपरागः,
उपप्लवः ॥
२. 'उपद्रव' के ७ नाम हैं— उपलिङ्गम्, अरिष्टम्, उपसर्गः, उपद्रवः, जन्यम् (पुन), ईति: ( स्त्री ), उत्पातः ॥
३. 'अग्निजन्य उपद्रव ' ( मता० 'धूमकेतु' नामक उपद्रव ) के २ नाम है - वह्नय स्पातः, उपाहितः ॥
४. 'समय' के ५ नाम हैं - काल:, समयः ( पुन ), दिष्टः, नेहा: (- हस् ), सर्वमूषकः ।।
५. 'काल' के २ भेद हैं - अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी । वह काल ( समय ) ate सागर कोड़ाकोड़ी व्यतीत होनेपर समाप्त होता है ।
विमर्श - प्रथम 'अवसर्पिणी' नामक कालमें भाव क्रमशः घटते जाते हैं और द्वितीय 'उत्सर्पिणी' नामक कालमें भाव क्रमशः बढ़ते जाते हैं। एक कोटि ( करोड़ ) को एक पोटिसे गुणित करनेपर एक कोटि-कोटि एक कोड़ाकोड़ी अर्थात् दश नील ) होता है । ऐसे बीस सागर कोटिकोटि ( कोड़ाकोड़ी ) समय में वह द्विविध काल पूरा होता है ॥
६. प्रथम 'अवसर्पिणी' नामक काल ( २ । ४३ में वक्ष्यमाण 'एकान्तसुषमा' इत्यादि) में ६ 'अर' होते हैं और द्वितीय 'उत्सर्पिणी' नामक कालमें वे ही ६'' विपरीत क्रमसे होते हैं, इस प्रकार यह कालचक्र १२ असे घूमा - ( चला ) करता है ।
'विमर्श - प्रथम 'अवसर्पिणी' नामक कालमें १ एकान्तसुषमा अर्थात् सुषमसुषमा, २ सुषमा, ३ सुषमदुःषमा, ४ दुःषमसुषमा, ५ दुःषमा, और ६ एकान्तदुःषमा अर्थात् दुःषमदुःषमा' - ये ६ 'अर' होते हैं, तथा द्वितीय 'उत्सर्पिणी' नामक कालमें वे ही छहों श्रर विपरीत क्रमसे अर्थात् १ एकान्तदु:षमा अर्थात् दुःषमदुःषमा, २ दु:षमा, ३ दुःषमसुषमा, ४ सुषमदुःषमा, ५ सुषमा और ६ एकान्तसुषमा अर्थात् सुषमसुषमा, होते हैं, और इन्हीं १२ अरोंके द्वारा यह उभयविध कालचक्र चलता रहता है । इन अरोका मान आगे ( २ ! ४३-४५ में ) कहा गया है ॥