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अभिधानचिन्तामणिः शुक्रसहस्त्रारानतप्राणतजा प्रारणाच्युतजाः ॥७॥ कल्पातीता नव अवेयकाः पञ्च त्वनुत्तराः । १ निकायभेदादेवं स्युर्देवाः किल चतुर्विधाः ॥८॥ २ आदित्यः सवितार्यमा खरसहस्रोष्णांशुरंशू रवि
मार्तण्डस्तरणिर्गभस्तिररुणो भानुर्नभोऽहमणिः । सूर्योऽकेः किरणो भगो ग्रहपुषः पूषा पतङ्गः खगो
मारजाः, माहेन्द्रजाः, ब्रह्मजाः, लान्तकजाः, महाशुक्रजाः; सहस्रारजाः, आन. तजाः, प्राणतजाः, श्रारणजाः, अच्युतजाः । द्वितीय 'कल्पातीत' वैमानिक देव १४ होते हैं, उनमें से ६ 'लोकपुरुष'के ग्रैवेयफ अर्थात् कण्ठभूषण हैं तथा ५ अनुत्तर हैं ॥
विमर्श-कल्पातीत अवेयक देव ३ हैं, तथा प्रत्येकके .३-३ भेद होनेसे वे समष्टिरूपमें ६ हो जाते हैं, और 'विजयः, वैजयन्तः, जयन्तः, अपराजितः, सर्वार्थसिद्धः (+सर्वार्थसिद्धिः )-ये ५ 'अनुत्तर कल्पातीत' वैमानिक देव हैं, इस प्रकार ( ३४३ =8+५ = १४) 'कल्पातीत' वैमानिक देवके १४ भेद हो जाते हैं।
१. इस प्रकार निवास-स्थानके भेदसे देवोंके ४ भेद होते हैं ।
विमर्श - इनमें से प्रथम 'भवनपति' देव एक लाख अस्सी हजार योजन परिमित रत्नप्रभामें एक-एक हजार योजन छोड़कर जन्म-ग्रहण करते हैं।' द्वितीय 'व्यन्तर' देव उस ( रत्नप्रभा) के ऊपर छोड़े गये एक हजार योजनके ऊपर तथा नीचे ( दोनों ओर ) एक-एक सौ योजन छोड़कर बीचवाले आठ सौ योजनमें जन्म-ग्रहण करते हैं। तृतीय ज्योतिष्क' देव समतल भू-भाग से सात सौ नब्बे योजन ऊपर चढ़कर एक सौ दस योजन पिण्डवाले तथा लोकान्तसे कुछ कम आकाशदेशमें जन्म-ग्रहण करते हैं और चतुर्थ 'वैमानिक' देव डेढ़ रज्जु चढ़कर सर्वार्थसिद्धि विमानके अन्त सौधर्मादि कल्पोंमें जन्म-ग्रहण' करते हैं। अपने-अपने नियत स्थानोंमें उत्पन्न भवनपत्यादि देव 'लवण-समुद्र, मन्दर पर्वत, वर्षधर पर्वत एवं जङ्गलों में निवास तो करते हैं, किन्तु पूर्वोक्त नियत स्थानोंके अतिरिक्त स्थानों में इनकी उत्पत्ति नहीं होती, अत एव यहाँ मूल (१८)में निवासार्थ या सहाथमें 'निकाय' शब्दका प्रयोग किया गया है ।।
२. 'सूर्य'के ७२ नाम हैं-आदित्यः, सविता (-४), अर्यमा (-मन् ), खरांशुः, सहस्रांशुः, उष्णांशुः ( यौ०-खररश्मिः, सहस्ररश्मिः, शीतेतररश्मिः,..."), अंशुः, रविः, मार्तण्डः, तरणिः ( पु स्त्री ), गभस्तिः, अरुणः, भानुः, नभोमणिः, अहर्मणिः (यौ०-व्योमरत्नम्, दिनरत्नम् , द्युमणिः, दिनमणिः,.."), सूर्यः, अर्कः, किरणः, भगः, ग्रहपुषः, पूषा (-षन् ),