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अभिधानचिन्तामणिः दक्षिणत्वमुपनीतरागत्वं च महार्थता । अव्याहतत्वं शिष्टत्वं संशयानामसम्भवः ॥६६॥ निराकृतान्योत्तरत्वं हृदयङ्गमताऽपि च । मिथः साकक्षता प्रस्तावौचित्यं तत्त्वनिष्ठता ॥६७ ॥ अप्रकीर्णप्रसृतत्वमस्वश्लाघाऽन्यनिन्दता । आभिजात्यमतिस्निग्धमधुरत्वं प्रशस्यता ॥६८ ।। अमर्मवेधितौदायं धर्मार्थप्रतिबद्धता । । कारकाद्यविपर्यासो विभ्रमादिवियुक्तता .. ॥ ६६ ।।.. चित्रकृत्त्वमद्भतत्वं तथाऽनतिविलम्बिता ।। अनेकजातिवैचित्र्यमारोपितविशेषता ॥ ७० ॥ सत्त्वप्रधानता वणेपदवाक्यविविक्तता । ..
अव्युच्छितिरखेदित्वं पञ्चविशच्च वाग्गुणाः ॥ ७१ ।। १ अन्तराया दानलाभवीयभोगोपभोगगाः ।
ध्वनिसे युक्त, ६ सरल, ७ मालव कैशिकी आदि ग्रामरागसे युक्त, ८ अधिक अर्थवाला, ६ पूर्वापर वाक्योंके विरोधाभाववाला,१० शिष्ट ( अभिमत सिद्धान्तका सूचक तथा वक्ताकी शिष्टताका सूचक), ११ सन्देहहीन, १२ दूसरोंके उत्तरोंका स्वयं निराकरण करनेवाला, १३ हृदयग्राह्य, १४ पदों तथा वाक्योंकी परस्परापेक्षाओंसे युक्त, १५ प्रस्तावनाके अनुकूल, १६ विवक्षित वस्तुस्वरूपके अनुकूल, १७ असम्बद्ध अधिकार तथा अतिविस्तारसे हीन, १८ आत्मप्रशंसा तथा परनिन्दासे हीन, १६ वक्ता या वक्तव्यकी भूमिकाके अनुकूल, २० घृत गुड़के तुल्य अत्यन्त स्निग्ध तथा मधुर, २१ प्रशंसित, २२ दूसरेका मर्मवेध नहीं करनेवाला, २३ उदार ( वक्तव्य अर्थसे पूर्ण ), २४ धर्मार्थयुक्त, २५ कारक-काल-वचन-लिङ्ग आदिके विपर्ययरूप दोषसे रहित, २६ वक्ताके भ्रान्ति आदि मानसिक दोषोंसे हीन, २७ उत्तरोत्तर कौतूहल-( उत्कण्ठा-)वर्द्धक, २८ अद्भुत, २६ अधिकविलम्बित्व दोषसे हीन, ३० वर्णनीय वस्तुके स्वरूपवर्णनके संश्रयसे विचित्र, ३१ अन्य वचनोंसे विशिष्ट, ३२ सत्त्वप्रधान ( साहसयुक्त), ३३ वर्ण, पद तथा वाक्योंके पृथक्त्वसे युक्त , ३४ विवक्षितार्थकी सम्यक् सिद्धि होनेतक निरन्तर वचनोंकी प्रमेयतायुक्त और ३५ अायासका अनुत्पादक -ऐसे तीर्थङ्करोंके वचन होते हैं, अत एव इन गुणोंसे युक्त होना तीर्थङ्करोंके वचनोंके अतिशय (गुण ) हैं । इनमें प्रथम सात शब्दकी अपेक्षासे और शेष २८ अर्थकी अपेक्षासे उन तीर्थङ्करोंके वचनोंके अतिशय ( गुण ) होते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥
. १. उन 'ऋषभ' आदि तीर्थङ्करों में ये १८ दोष नहीं होते हैं-१ दानगत अन्तराय, २ लाभगत अन्तराय, ३ वीर्यगत अन्तराय, ४ माला आदिका