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'मणिप्रभा'व्याख्योपेतः १ खे धर्मचक्रं चमराः सपादपीठं मृगेन्द्रासनमुज्ज्वलञ्च ।
छत्रत्रयं रत्नमयध्वजोऽह्रिन्यासे च चामीकरपङ्कजानि ॥६१ ॥ वप्रत्रयं चारु चतुर्मुखाङ्गता चैत्यद्रमोऽधोवदनाश्च कण्टकाः। द्रमानतिदुन्दुभिनाद उच्चकैर्वातोऽनुकूलः शकुनाः प्रदक्षिणाः ॥६२॥ गन्धाम्बुवर्षं बहुवर्णपुष्पवृष्टिः कचश्मश्रनखाप्रवृद्धिः । चतुर्विधाऽमर्त्य निकायकोटिर्जघन्यभावादपि पार्श्वदेशे ॥६३ ॥ ऋतूनामिन्द्रियार्थानामनुकूलत्वमित्यमी एकोनविंशतिर्दैव्याश्चतुस्त्रिंशच्च मीलिताः ॥६४ ।।
२ संस्कारवत्त्वमौदात्यमुपचारपरीतता
मेघगम्भीरघोषत्वं प्रतिनादविधायिता ॥६५॥ १. उन तीर्थङ्करोंके देवकृत १६ अतिशय होते हैं--क्रमशः १-५ म अतिशय-आकाशमें धर्म-प्रकाशक चक्र होता है, आकाशमें चामर (चुंवर ) होते हैं, आकाशमें पादपीठ (पैर रखने के लिए श्रासन) के सहित स्फटिकमय उज्ज्वल सिंहासन होता है, आकाशमें तीन छत्र होते हैं, और अाकाशमें ही रत्नमय ध्वज ( झण्डा ) होता है । ६ष्ठ अतिशय-पैर रखने के लिए सुवर्णरचित कमल होते हैं । ७म अतिशय-समवसरण में रत्न, सुवण तथा चाँदीके बने सुन्दर तीन वप्र (चहारदीवारियां) होते हैं । ८ म अतिशय-चार मुखोंवाले गात्र होते
हैं । ६ म अतिशय-चैत्यनामक 'अशोक' वृक्ष होता है । १० म अतिशय.. काँटोंका मुख नीचेकी ओर होता है । ११ श अतिशय-पेड़ ( फल-फूलकी
अधिकतासे ) अत्यन्त झुके हुए रहते हैं । १२ श अतिशय-दुन्दुभिका शब्द लोकमें फैलनेवाला उच्च स्वरसे युक्त होता है । १३ श अतिशय-सुखप्रद अनुकूलं वायु बहती है।। १४ श अतिशय-पक्षिगण प्रदक्षिण क्रमसे (दहने भाग होकर ) उड़ते हैं । १५ श अतिशय-सुगन्धित जलकी वृष्टि होती है । १६ श अतिशय-घुटनेतक ऊँची पांच रंगवाले फूलोंकी वृष्टि होती है । १७ श अतिशय-पाल, रोएँ, दाढ़ी, मूंछ और नख नहीं बढ़ते हैं । १८ श अतिशय-- समीपमें कमसे कम एक काटि भवनपति आदि चतुर्विध ( १ भवनपति या भवनवासी, २ व्यन्तर, ३ ज्योतिष्क और ४ वैमानिक ) देवोंका निवास रहता है । १६ तम अतिशय-रूप रस गन्ध स्पर्श और शब्दसे वसन्त आदि ऋतु सर्वदा अनुकूल रहते हैं। इस प्रकार देवकृत ये १६ अतिशय, सहज ४ अतिशय और ज्ञानावरणीय कर्मक्षयजन्य ११ अतिशय (१६+४+ ११=३४) कुल मिलाकर ३४ अतिशय उन तीर्थङ्करोंके होते हैं ।
२. उन तीर्थङ्करोंकी वाणीके वक्ष्यमाण ३५ अतिशय होते हैं-१ संस्कारसे युक्त, २ उच्च स्वरयुक्त, ३ अग्राम्य, ४ मेघके तुल्य गम्भीर ध्वनिवाला, ५ प्रति