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अभिधानचिन्तामणिः १ एवं परावृत्तिसहा योगात्स्युरिति यौगिकाः ।। १८ ।। २ मिश्राः पुनः परावृत्त्यसहा गोर्वाणसन्निभाः।
प्रवक्ष्यन्तेऽत्र २७ लिङ्गतु ज्ञेयं लिङ्गानुशासनात् ॥ १६ ।।
३ देवाधिदेवाः प्रथमे काण्डे, देवा द्वितीयके। करनेसे और "भूभृत् , भूधरः,....' में उत्तर पदका परिवर्तन करनेसे उक्त शब्द 'पर्वत'के पर्याय बन जाते हैं । ('श्राद्य' शब्दसे-"सुरराजः, देवराजः, अमरराजः,"........."इत्यादिमें पूर्वपदके परिवर्तनसे और "सुरपतिः, सुरेशः, सुरराजः, सुरेन्द्रः,"........."में उत्तरपदके परिवर्तनसे उक्त शब्द 'इन्द्र'के पर्याय बन जाते हैं ।
१. ( 'यौगिक' शब्दोंका उपसंहार करते हुए कहते हैं-) इस प्रकार अर्थात् कहींपर पूर्वपदके, कहींपर उत्तर पदके और कहींपर उभय पदों ( दोनों पदों) के परिवर्तनको सहनेवाले “वार्षिः, वडवाग्निः, भूभृत् , भूधरः,......." शब्द 'यौगिक' (प्रकृति-प्रत्ययके योगसे बने हुए ) कहे जाते हैं ।।
२. (शर से प्रारम्भकर यहांतक यौगिक' शब्दोंका निर्देश करने के उपरान्त अब क्रमप्राप्त तृतीय 'मिश्र' अर्थात् 'योगरूढ' शब्दोंका निर्देश करते हैं-) गर्वाण:' आदि शब्द (पूर्व पदमें या उत्तर पदमें ) पर्याय-परिवर्तनका सहन नहीं करनेसे अर्थात् पूर्व या उत्तर पदमें परिवर्तन करनेपर अभीष्टार्थका बोधक नहीं होनेसे 'मिश्र अर्थात् 'योगरूढ' शब्दं यहाँ (इस अभिधानचिन्तामणि'नामक ग्रन्थमें ) कहे जायेंगे। (गीर्वाणसन्निभाः' पद में 'आदि' अर्थवाले 'सन्निभ' शब्दके प्रयोगसे--'दशरथः, कृतान्तः,......." इत्यादि मिश्र' शब्दोंका संग्रह होता है)। ___३. इस ग्रन्थमें कहे जानेवाले पर्यायोंके लिङ्गों (पुंलिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग और नपुसंकलिङ्ग ) का ज्ञान लिङ्गानुशासन से करना चाहिए। ( अत एव 'अमरकोष' इत्यादि ग्रंथों के समान इस 'अभिधानचिन्तामणि' ग्रंथमें लिङ्गोंका निर्णय नहीं किया गया है ( कुछ सन्दिग्ध और अनेक लिङ्गवाले पर्यायोंका निर्णय स्वोपज्ञ वृत्तिमें किया गया है । यथा-गणरात्रः पुंक्लीबलिङ्गः (२।५७), तमित्रम् स्त्रीक्लीबलिङ्गः ( २५६, तिथिः पुंस्त्रीलिङ्गः (२०६१),.......') ___४. जीवोंकी ५ गतियाँ हैं-१ मुक्तगति, २ देवगति, ३ मनुष्यगति, ४ तिर्यग्गति और ५ नारकगति । अतः इन भेदोंसे जीव भी ५ प्रकारके होते हैं१ मुक्त, २ देव, ३ मनुष्य, ४ तिर्यञ्च और ५ नारक । पहले, कहे जाने वाले "रूढ, यौगिक तथा मिश्र” शब्दोंके विभागोंको कहकर अब प्रथमादि ६ काण्डोंमें वक्ष्यमाण 'मुक्त' आदि जीवोंके क्रमको कहते हैं-) १ म काण्डमेंगणधर श्रादि अङ्गोंके सहित देवाधिदेव ( वर्तमान, भूत तथा भविष्यत् अर्हन्तों