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अभिधानचिन्तामणिः . प्राकप्रदर्शितसम्बन्धिशब्दा योज्या यथोचितम् । १ दृश्यते खलु वाह्यत्वे - वृषस्य वृषवाहनः ॥ १२ ।। स्वत्वे पुनर्वृषपतिर्धार्यत्वे वृषलाञ्छनः। अंशोर्धायत्वेऽशुमाली स्वत्वेऽशुपतिरंशुमान् ॥ १३ ॥ वध्यत्वेऽहेरहिरिपुर्भोज्यत्वे चाहिभुक्शिखी । २ चिरैय॑क्तैर्भवेद्वयक्तेर्जातिशब्दोऽपि वाचकः ॥ १४ ।।
तथा ह्यगस्तिपूता दिग्दक्षिणाशा निगद्यते । ३ अयुग्विषमशब्दौ त्रिपञ्चसप्तादिवाचकौ ॥ १५ ॥ आदि सम्बधि-पदसे सम्बन्धान्तर ( दूसरे संबंध )के निमित्तक शब्दोंका भी यथोचित प्रयोग होता है।
१. (पूर्वोक्त सिद्धान्तोंको ही उदाहरणोंके द्वारा स्पष्ट करते हैं-) 'वाह्य-वाहक-संबंध'की विवक्षामें जिस प्रकार 'वृषवाहनः' शब्द 'शिवजी'का पर्याय होता है, उसी प्रकार-स्वस्वामिभावसम्बन्ध'को विवक्षामें 'वृषपतिः' शब्द, 'धार्य-धारकभावसम्बन्ध'की धिवक्षामें 'वृषलाञ्छनः' शब्द भी शिवजीके पर्याय हो जाते हैं, और 'धार्य-धारक भावसम्बन्ध'की विवक्षामें जिस प्रकार 'अंशुमाली' (-लिन् ) शब्द 'सूर्य'का पर्याय होता है, उसी प्रकार 'स्व-स्वामिभावसम्बन्ध'की विवक्षामें 'अंशुपतिः, अंशुमान् (-मंत् )' शब्द भी 'सूर्य'के पर्याय हो जाते हैं । एवं 'वध्यवधकभावसम्बन्ध'की विवक्षामें जिस प्रकार 'अहिरिपु' शब्द 'मोर'का पर्याय होता है, उसी प्रकार 'भोज्य-भोजकमावसम्बन्ध'की विवक्षामें 'अहिभुक' (-भुज ) शब्द भी 'मोरका पर्याय हो जाता है । ( इसी प्रकार अन्यत्र भी और उदाहरणोंको समझना चाहिए )॥
२. सन्देहहीन चिह्नों (विशेषणों )के द्वारा, जातिवाचक भी शब्द व्यक्तिका वाचक हो जाता है । यथा-अगस्त्य मुनिके द्वारा पवित्र की गयी दिशा अगस्त्यपूता दिक अर्थात् दक्षिण दिशा कहलाती है । ( यहाँपर असस्त्य मुनिने अपने नित्य निवाससे दक्षिण दिशाको पवित्र किया है, यह चिह्न सन्देहहीन है, अत एव उनसे ( अगस्त्य मुनिसे ) चिह्नित 'दिक' यह जाति शब्द दक्षिण दिशारूप विशिष्ट दिशा ( व्यक्ति )के अर्थमें प्रयुक्त होता है। इसी प्रकार उत्तर दिशाको 'सप्तर्षियों से पवित्र होनेके कारण 'सप्तर्षिपूता दिक' उत्तर दिशारूप व्यक्ति (विशिष्ट दिशा )के अर्थमें प्रयुक्त होता है । 'चन्द्रमा'का 'अत्रि ऋषिके नेत्रसे उत्पन्न होनेके कारण 'अत्रिनेत्रोत्पन्नं ज्योतिः'से 'चन्द्रमा का बोध होता है।
३. 'तीन, पाँच, सात, आदि ('आदिः शब्दसे—'नव, एकादश,...'का संग्रह है ) असमान (विषम, फूट ) संख्याके वाचक 'अयुक'