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अमरगुरु बृहस्पति-जैसे गुरु तथा अमरराज इन्द्र-जैसे शिष्य, दिव्य सहस्र वर्ष (३६०००० मानव वर्ष ) आयु होनेपर भी जिस शब्द-सागरके पारगामी न हो सके, उस शब्द-सागरका पारङ्गत होना अधिक-से-अधिक १०० वर्ष परिमित. आयुवाले वर्तमानकालिक मानवके लिए किस प्रकार सम्भव है ? हाँ, पूर्वकालमें योगबल-द्वारा सम्यग्ज्ञान-सम्पन्न, साक्षात् मन्त्रद्रष्टा महामहिम महषिगण उक्त शब्द. सागरके -पारगामी अवश्य होते थे, किन्तु परिवर्तनशील संसारमें कालचक्रके चलते उक्त योगबलके साथ ही साक्षात्-मन्त्रद्रष्टत्व शक्तिका भी हास होने लगा। फलतः वैसे साक्षात् मन्त्रद्रष्टा महर्षियोंका सर्वथा अभाव होनेसे भगवान् कश्यप मुनिने वैदिक मन्त्रार्थज्ञानके लिए सर्वप्रथम 'निघण्टु' नामक कोपकी रचना की। परन्तु कालचक्रके अबाध गतिसे उसी प्रकार चलते रहनेसे योगबलका और भी अधिक ह्रास हुआ और उक्त 'निघण्टु'के भी समझनेवालोंका अभाव देखकर. 'यास्क' मुनिने 'निरुक्त' नामक कोषकी रचना की। जिस प्रकार अग्नि-निर्गत ज्वालाको अग्नि ही माना जाता है, उसी प्रकार वेदनिर्गत उक्त कोषद्वयको भी वेद ही माना गया है।
लौकिक कोषोंकी परम्परा ज्ञान-हासक कालचक्रके अबाध रूपसे चलते रहनेसे लौकिक शब्दोंके भी ज्ञाताओंका हास हो जानेपर आचार्योंने लौकिक कोषोंका निर्माण किया। इनमें सर्वप्रथम किस लौकिक कोषका किस प्राचार्यने निर्माण किया, इसका वास्तविक ज्ञान आजतक अन्धकारमें ही पड़ा है, क्योंकि १२ वीं शताब्दीमें रचित 'शब्दकल्पद्रुम' नामक कोषमें २६ कोषकारोंके नाम उपलब्ध होते हैं। प्रायः सौ वर्षोंसे दुर्लभ एवं सार्वजनीन संस्कृत ग्रन्थोंके मुद्रण-प्रकाशन-द्वारा अमरवाणी-साहित्यकी सेवामें सतत संलग्न रहनेसे भारतमें ही नहीं, अपितु विदेशीतकमें ख्यातिप्राप्त 'चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणासी' ने चिरकालसे दुष्प्राप्य उक्त शब्दकल्पद्रुम तथा वाचस्पत्यम् नामक महान् ग्रन्थरनोंका प्रकाशन, गतवर्ष ही किया है । 'शब्दकल्पद्रुम' में मिलनेवाले कात्यायन, साहसाङ्क, उत्पलिनी आदि कोषग्रन्थ यद्यपि वर्तमानकालमें सर्वथा अनुपलभ्य हैं, तथापि उनके परम्परोपलब्ध वचन परवती टीकाकारोंके आजतक उपजीव्य हो रहे हैं । विशेष जिज्ञासुओंको इस ग्रन्थकी विस्तृत प्रस्तावनासे कोषग्रन्थोंकी परम्पराका ज्ञान करना चाहिए।