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आमुख "एकः शब्दः सम्यग्ज्ञातः सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके च कामधुग्भवति ।" इस वचनके अनुसार सम्यक् प्रकारसे ज्ञात एवं प्रयुक्त शब्द उभयलोकमें मनोवांछित फल देनेवाला होता है, क्योंकि विश्वके हस्तामलकवत् प्रत्यक्षद्रष्टा हमारे प्राचार्योंने 'शब्द'को साक्षात् ब्रह्म कहा है और प्राणियोंने शब्द अथवा अनाहत नादरूपमें ही ब्रह्मका साक्षात्कार किया है, अतएव शब्दके सम्यग्ज्ञान और अनुभवकी महत्ता सुतरां सिद्ध हो जाती है। शब्दप्रयोगके विना अपने मनोगत. अभिप्रायको दूसरे व्यक्तिसे कोई भी मनुष्य व्यक्त नहीं कर सकता और वैसे व्यक, व्युत्पन्न एवं सार्थक शब्दके प्रयोगकी क्षमता एकमात्र मानवमें ही है, पशु-पक्षी आदि अन्य प्राणियों में नहीं । यद्यपि आचार्यों ने
"शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानकोषाप्तवाक्याद्वयवहारतश्च ।
वाक्यस्य शेषाद्विवृतेर्वदन्ति सान्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः॥" इस वचनके द्वारा व्याकरण, उपमान, कोष, आप्तवाक्य, व्यवहार
आदिको व्युत्पन्न शब्दका शक्तिग्राहक बतलाया है; तो भी उनमें व्याकरण एवं कोष ही मुख्य हैं। इनमें भी व्याकरणके प्रकृति-प्रत्यय-विश्लेषणद्वारा प्रायः यौगिक शब्दोंका ही शक्तिग्राहक होनेसे सर्वविध (रूढ, यौगिक तथा योगरूढ ) शब्दोंका पूर्णतया अबाध ज्ञान कोश-द्वारा ही हो सकता है । भगवान्-पतञ्जलिने कहा है
"एवं हि श्रूयते-बृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यं वर्षसहस्रं प्रतिपदोक्तानां शब्दानां शब्दपारायणं प्रोवाच, नान्तं जगाम | बृहस्पतिश्च प्रवक्ता, इन्द्रश्चाध्येता, दिव्यं वर्षसहस्रमध्ययनकाल; न चान्तं जगाम, किं पुनरद्यत्वे । यः सर्वया चिरं जीवति, वर्षशतं जीवति ।" (महाभाष्य, पस्पशाह्निक) इस तथ्य की पुष्टि अनुभूतिस्वरूपाचार्य के निम्नोक्त पद्य से भी होती है
"इन्द्रादयोऽपि यस्यान्तं न ययुः शब्दवारिधः । प्रक्रियान्तस्य कृत्स्नस्य क्षमो वक्तं नरः कथम् ॥"