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'मणिप्रभा' व्याख्योपेतः
तिर्यककाण्ड : ४ ]
- १ऽथ हलाहलः ।। २६१ ।।
वत्सनाभः कालकूटो ब्रह्मपुत्रः प्रदीपनः । सौराष्ट्रिकः 'शौल्किकेयः काकोलो दारदोऽपि च ।। २६२ ।। अहिच्छत्रो मेएशृङ्गः कुष्ठवालूकनन्दनाः । कैराटको हैमवतो मर्कट: करवीरकः || २६३ ॥ सर्पपो मूलको गौरार्द्रकः सक्तककर्दमौ । श्रङ्कोल्लसारः कालिङ्गः शृङ्गिको मधुसिक्थकः || २६४ ।। इन्द्रो लालिको विस्फुलिङ्गः पिङ्गलगौतमाः । मुस्तको दालवश्चेति स्थावरा विषजातयः ।। २६५ ॥ राधा अबीजा ३मूलजास्तूत्पलादयः । पर्वयोनय इवाद्याः ५स्कन्धजाः सल्लकीमुखाः || २६६ ।। ६ शाल्यादयो बीजरुहाः ७सम्मूर्च्छजास्तृणादयः । स्युर्वनस्पतिकायस्य षडेता मूलजातय: ।। २६७ ।।
२६१
१. हलाहल:, (+ हालाहल:, हालहलः । सत्र पुन), वत्सनाभः, कालकूटः, ब्रह्मपुत्रः, प्रदीपनः, सौराष्ट्रकः, शौल्किकेयः, काकोल : (पुन), दारदः, अहिच्छत्रः मेषशृङ्गः, कुष्ठः, वालूकः, नन्दनः, कैराटक:, हैमवतः, मर्कटः, करवीरकः, (+ करवीरः ), सर्षपः, मूलकः, गौरार्द्रकः, सच्छुकः, कर्दमः, अङ्कोल्लसार:, कालिङ्गः, शृङ्गिकः, मधुसिक्थकः ( + मधुसिक्थ: ), इन्द्र:, लाङ्गुलिकः, विस्फुलिङ्गः, पिङ्गलः, गौतमः, मुस्तकः, दालव: ( सब पुलिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग है, ऐसा वाचस्पतिका मत है ); - ये सब 'स्थावर' विष के भेद हैं ।
२. 'कटसरैया आदि . ( 'आदि' शब्द से - पारिभद्र आदि ) 'अग्रबीजा: ' हैं अर्थात् इनकी उत्पत्ति अग्रभागसे होती है ॥
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३. 'उत्पल आदि' ('आदि' शब्दसे सूरण, आर्द्रक आदि ) 'मूलजा : ' हैं अर्थात् इनकी उत्पत्ति मूल (जड़) से होती है ॥
४. 'गन्ना' आदि ('आदि' शब्द से तृण बांस आदि ) 'पर्वयोनयः ( - निः) है अर्थात् इनकी उत्पत्ति 'गांठ, गिरह, पर्व ( पोर ) से होती है ।
५. 'सई' आदि ( 'आदि' शब्द से 'बड़ आदि ) 'स्कन्धजाः ' हैं अर्थात् 'इनकी उत्पत्ति 'स्कन्ध' से होती है ॥
६. 'शालि, धान आदि ( 'आदि' शब्द से 'साठी चना, मूंग, गेहूँ' श्रादि ) 'बीरुहाः' हैं अर्थात् इनकी उत्पत्ति बीजसे होती है |
७. 'तृण' आदि ( 'आदि' शब्द से भूच्छत्र ( कुकुरमुत्ता ) आदि ) 'संमूर्च्छाः हैं अर्थात् इनकी उत्पत्ति संमूर्च्छन से होती है |
८. 'वनस्पतिकायिक जीवों के ये ६ ( श्रग्रभाग, मूल, पर्व ( पोर, गिरह ), -स्कन्ध, बीज और सम्मूच्र्च्छन ) 'मूलजाति' अर्थात् उत्पत्ति स्थान हैं ।